प्रेमचंद
प्रेम का स्वप्न
मनुष्य
का हृदय अभिलाषाओं का क्रीड़ास्थल और कामनाओं का आवास है। कोई समय वह थां जब कि
माधवी माता के अंक में खेलती थी। उस समय हृदय अभिलाषा और चेष्टाहीन था। किन्तु जब
मिट्टी के घरौंदे बनाने लगी उस समय मन में यह इच्छा उत्पन्न हुई कि मैं भी अपनी
गुड़िया का विवाह करुँगी। सब लड़कियां अपनी गुड़ियां ब्याह रही हैं, क्या मेरी गुड़ियाँ कुँवारी रहेंगी? मैं अपनी गुड़ियाँ के लिए गहने बनवाऊँगी, उसे वस्त्र पहनाऊँगी, उसका विवाह रचाऊँगी। इस इच्छा ने उसे कई
मास तक रुलाया। पर गुड़ियों के भाग्य में विवाह न बदा था। एक दिन मेघ घिर आये और
मूसलाधार पानी बरसा। घरौंदा वृष्टि में बह गया और गुड़ियों के विवाह की अभिलाषा
अपूर्ण हो रह गयी।
कुछ
काल और बीता। वह माता के संग विरजन के यहॉँ आने-जाने लगी। उसकी मीठी-मीठी बातें
सुनती और प्रसन्न होती, उसके थाल में खाती और
उसकी गोद में सोती। उस समय भी उसके हृदय में यह इच्छा थी कि मेरा भवन परम सुन्दर
होता, उसमें चांदी के
किवाड़ लगे होते, भूमि ऐसी स्वच्छ होती
कि मक्खी बैठे और फिसल जाए ! मैं विरजन को अपने
घर ले जाती, वहां अच्छे-अच्छे
पकवान बनाती और खिलाती, उत्तम पलंग पर सुलाती
और भली-भॉँति उसकी सेवा करती। यह इच्छा वर्षों तक हृदय में चुटकियाँ लेती रही।
किन्तु उसी घरौंदे की भाँति यह घर भी ढह गया और आशाएँ निराशा में परिवर्तित हो
गयी।
कुछ
काल और बीता, जीवन-काल का उदय हुआ।
विरजन ने उसके चित्त पर प्रतापचन्द्र का चित्त खींचना आरम्भ किया। उन दिनों इस
चर्चा के अतिरिक्त उसे कोई बात अच्छी न लगती थी। निदान उसके हृदय में प्रतापचन्द्र
की चेरी बनने की इच्छा उत्पन्न हुई। पड़े-पड़े हृदय से बातें किया करती। रात्र में
जागरण करके मन का मोदक खाती। इन विचारों से चित्त पर एक उन्माद-सा छा जाता, किन्तु प्रतापचन्द्र इसी बीच में गुप्त
हो गये और उसी मिट्टी के घरौंदे की भाँति ये हवाई किले ढह गये। आशा के स्थान पर
हृदय में शोक रह गया।
अब निराशा ने उसक
हृदय में आशा ही शेष न रखा। वह देवताओं की उपासना करने लगी, व्रत रखने लगी कि प्रतापचन्द्र पर समय
की कुदृष्टि न पड़ने पाये। इस प्रकार अपने जीवन के कई वर्ष उसने तपस्विनी बनकर
व्यतीत किये। कल्पित प्रेम के उल्लास मे चूर होती। किन्तु आज तपस्विनी का व्रत टूट
गया। मन में नूतन अभिलाषाओं ने सिर उठाया। दस वर्ष की तपस्या एक क्षण में भंग हो
गयी। क्या यह इच्छा भी उसी मिट्टी के घरौंदे की भाँति पददलित हो जाएगी?
आज
जब से माधवी ने बालाजी की आरती उतारी है,उसके आँसू नहीं रुके।
सारा दिन बीत गया। एक-एक करके तार निकलने लगे। सूर्य थककर छिप गय और पक्षीगण घोसलों
में विश्राम करने लगे, किन्तु माधवी के
नेत्र नहीं थके। वह सोचती है कि हाय! क्या मैं इसी प्रकार रोने के लिए बनायी
गई हूँ? मैं कभी हँसी भी थी जिसके कारण इतना रोती हूँ? हाय! रोते-रोते आधी आयु
बीत गयी, क्या शेष भी इसी
प्रकार बीतेगी? क्या मेरे जीवन में एक
दिन भी ऐसा न आयेगा, जिसे स्मरण करके
सन्तोष हो कि मैंने भी कभी सुदिन देखे थे? आज के पहले माधवी कभी
ऐसे नैराश्य-पीड़ित और छिन्नहृदया नहीं हुई थी। वह अपने कल्पित पेम मे निमग्न थी।
आज उसके हृदय में नवीन अभिलाषाएँ उत्पन्न हुई है। अश्रु उन्हीं के प्रेरित है। जो
हृदय सोलह वर्ष तक आशाओं का आवास रहा हो, वही इस समय माधवी की
भावनाओं का अनुमान कर सकता है।
सुवामा
के हृदय मे नवीन इच्छाओं ने सिर उठाया है। जब तक बालजी को न देखा था, तब तक उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा यह थी कि
वह उन्हें आँखें भर कर देखती और हृदय-शीतल कर लेती। आज जब आँखें भर देख लिया तो
कुछ और देखने की अच्छा उत्पन्न हुई। शोक ! वह इच्छा उत्पन्न
हुई माधवी के घरौंदे की भाँति मिट्टी में मिल जाने क लिए।
आज
सुवामा, विरजन और बालाजी में
सांयकाल तक बातें होती रही। बालाजी ने अपने अनुभवों का वर्णन किया। सुवामा ने अपनी
राम कहानी सुनायी और विरजन ने कहा थोड़ा, किन्तु सुना बहुत।
मुंशी संजीवनलाल के सन्यास का समाचार पाकर दोनों रोयीं। जब दीपक जलने का समयआ
पहुँचा, तो बालाजी गंगा की ओर
संध्या करने चले और सुवामा भोजन बनाने बैठी। आज बहुत दिनों के पश्चात सुवामा मन
लगाकर भोजन बना रही थी। दोनों बात करने लगीं।
सुवामा-बेटी! मेरी यह हार्दिक अभिलाषा थी कि मेरा
लड़का संसार में प्रतिष्ठित हो और ईश्वर ने मेरी लालसा पूरी कर दी। प्रताप ने पिता
और कुल का नाम उज्ज्वल कर दिया। आज जब प्रात:काल मेरे स्वामीजी की जय सुनायी जा
रही थी तो मेरा हृदय उमड़-उमड़ आया था। मैं केवल इतना चाहती हूँ कि वे यह वैराग्य
त्याग दें। देश का उपकार करने से मैं उन्हें नहीं राकती। मैंने तो देवीजी से यही
वरदान माँगा था, परन्तु उन्हें
संन्यासी के वेश में देखकर मेरा हृदय विदीर्ण हुआ जाता है।
विरजन
सुवामा का अभिप्राय समझ गयी। बोली-चाची! यह बात तो मेरे
चित्त में पहिले ही से जमी हुई है। अवसर पाते ही अवश्य छेडूँगी।
सुवामा-अवसर
तो कदाचित ही मिले। इसका कौन ठिकान? अभी जी में आये, कहीं
चल दें। सुनती हूँ सोटा हाथ में लिये अकेले वनों में घूमते है। मुझसे अब बेचारी
माधवी की दशा नहीं देखी जाती। उसे देखती हूँ तो जैसे कोई मेरे हृदय को मसोसने लगता
है। मैंने बहुतेरी स्त्रीयाँ देखीं और अनेक का वृत्तान्त पुस्तकों में पढ़ा ; किन्तु ऐसा प्रेम कहीं नहीं देखा।
बेचारी ने आधी आयु रो-रोकर काट दी और कभी मुख न मैला किया। मैंने कभी उसे रोते
नहीं देखा ; परन्तु रोने वाले नेत्र और हँसने वाले मुख छिपे
नहीं रहते। मुझे ऐसी ही पुत्रवधू की लालसा थी,
सो
भी ईश्वर ने पूर्ण कर दी। तुमसे सत्य कहती हूँ,
मैं
उसे पुत्रवधू समझती हूँ। आज से नहीं, वर्षों से।
वृजरानी-
आज उसे सारे दिन रोते ही बीता। बहुत उदास दिखायी देती है।
सुवामा-
तो आज ही इसकी चर्चा छेड़ो। ऐसा न हो कि कल किसी ओर प्रस्थान कर दे, तो फिर एक युग प्रतीक्षा करनी पड़े।
वृजरानी-
(सोचकर) चर्चा करने को तो मैं करुँ, किन्तु माधवी स्वयं
जिस उत्तमता के साथ यह कार्य कर सकती है, कोई दूसरा नहीं कर
सकता।
सुवामा-
वह बेचारी मुख से क्या कहेगी?
वृजरानी-
उसके नेत्र सारी कथा कह देंगे?
सुवामा-
लल्लू अपने मन में क्या कहंगे?
वृजरानी-
कहेंगे क्या ? यह तुम्हारा भ्रम है जो तुम उसे कुँवारी समझ रही
हो। वह प्रतापचन्द्र की पत्नी बन चुकी। ईश्वर के यहाँ उसका विवाह उनसे हो चुका यदि
ऐसा न होता तो क्या जगत् में पुरुष न थे? माधवी जैसी स्त्री को कौन नेत्रों में न स्थान
देगा? उसने अपना आधा यौवन व्यर्थ रो-रोकर बिताया है।
उसने आज तक ध्यान में भी किसी अन्य पुरुष को स्थान नहीं दिया। बारह वर्ष से
तपस्विनी का जीवन व्यतीत कर रही है। वह पलंग पर नहीं सोयी। कोई रंगीन वस्त्र नहीं
पहना। केश तक नहीं गुँथाये। क्या इन व्यवहारों से नहीं सिद्व होता कि माधवी का
विवाह हो चुका? हृदय का मिलाप सच्चा विवाह है। सिन्दूर का टीका, ग्रन्थि-बन्धन और भाँवर- ये सब संसार
के ढकोसले है।
सुवामा-
अच्छा, जैसा उचित समझो करो।
मैं केवल जग-हँसाई से डरती हूँ।
रात
को नौ बजे थे। आकाश पर तारे छिटके हुए थे। माधवी वाटिका में अकेली किन्तु अति दूर
हैं। क्या कोई वहाँ तक पहुँच सकता है? क्या मेरी आशाएँ भी उन्ही नक्षत्रों की भाँति है? इतने में विरजन ने उसका हाथ पकड़कर हिलाया।
माधवी चौंक पड़ी।
विरजन-अँधेरे
में बैठी क्या कर रही है?
माधवी-
कुछ नहीं, तो तारों को देख रही
हूँ। वे कैसे सुहावने लगते हैं, किन्तु मिल नहीं
सकते।
विरजन
के कलेजे मे बर्छी-सी लग गयी। धीरज धरकर बोली- यह तारे गिनने का समय नहीं है। जिस
अतिथि के लिए आज भोर से ही फूली नहीं समाती थी,
क्या
इसी प्रकार उसकी अतिथि-सेवा करेगी?
माधवी-
मैं ऐसे अतिथि की सेवा के योग्य कब हूँ?
विरजन-
अच्छा, यहाँ से उठो तो मैं
अतिथि-सेवा की रीति बताऊँ।
दोनों
भीतर आयीं। सुवामा भोजन बना चुकी थी। बालाजी को माता के हाथ की रसोई बहुत दिनों
में प्राप्त हुई। उन्होंने बड़े प्रेम से भोजन किया। सुवामा खिलाती जाती थी और
रोती जाती थी। बालाजी खा पीकर लेटे, तो विरजन ने माधवी से
कहा- अब यहाँ कोने में मुख बाँधकर क्यों बैठी हो?
माधवी-
कुछ दो तो खाके सो रहूँ, अब यही जी चाहता है।
विरजन-
माधवी! ऐसी निराश न हो।
क्या इतने दिनों का व्रत एक दिन में भंग कर देगी?
माधवी
उठी, परन्तु उसका मन बैठा
जाता था। जैसे मेघों की काली-काली घटाएँ उठती है और ऐसा प्रतीत होता है कि अब
जल-थल एक हो जाएगा, परन्तु अचानक पछवा
वायु चलने के कारण सारी घटा काई की भाँति फट जाती है, उसी प्रकार इस समय माधवी की गति हो रही
है।
वह
शुभ दिन देखने की लालसा उसके मन में बहुत दिनों से थी। कभी वह दिन भी आयेगा जब कि
मैं उसके दर्शन पाऊँगी? और उनकी अमृत-वाणी से
श्रवण तृप्त करुँगी। इस दिन के लिए उसने मान्याएँ कैसी मानी थी? इस दिन के ध्यान से ही उसका हृदय कैसा खिला उठता
था!
आज
भोर ही से माधवी बहुत प्रसन्न थी। उसने बड़े उत्साह से फूलों का हार गूँथा था।
सैकड़ों काँटे हाथ में चुभा लिये। उन्मत्त की भाँति गिर-गिर पड़ती थी। यह सब हर्ष
और उमंग इसीलिए तो था कि आज वह शुभ दिन आ गया। आज वह दिन आ गया जिसकी ओर चिरकाल से
आँखे लगी हुई थीं। वह समय भी अब स्मरण नहीं,
जब
यह अभिलाषा मन में नहीं, जब यह अभिलाषा मन में
न रही हो। परन्तु इस समय माधवी के हृदय की वह गाते नहीं है। आनन्द की भी सीमा होती
है। कदाचित् वह माधवी के आनन्द की सीमा थी,
जब
वह वाटिका में झूम-झूमकर फूलों से आँचल भर रही थी। जिसने कभी सुख का स्वाद ही न
चखा हो, उसके लिए इतना ही
आनन्द बहुत है। वह बेचारी इससे अधिक आनन्द का भार नहीं सँभाल सकती। जिन अधरों पर
कभी हँसी आती ही नहीं, उनकी मुस्कान ही हँसी
है। तुम ऐसों से अधिक हँसी की आशा क्यों करते हो?
माधवी बालाजी की ओर परन्तु इस प्रकार इस प्रकार नहीं जैसे एक नवेली बहू आशाओं से
भरी हुई श्रृंगार किये अपने पति के पास जाती है। वही घर था जिसे वह अपने देवता का
मन्दिर समझती थी। जब वह मन्दिर शून्य था, तब वह आ-आकर आँसुओं
के पुष्प चढ़ाती थी। आज जब देवता ने वास किया है, तो
वह क्यों इस प्रकार मचल-मचल कर आ रही है?
रात्रि
भली-भाँति आर्द्र हो चुकी थी। सड़क पर घंटों के शब्द सुनायी दे रहे थे। माधवी दबे
पाँव बालाजी के कमरे के द्वार तक गयी। उसका हृदय धड़क रहा था। भीतर जाने का साहस न
हुआ, मानो किसी ने पैर
पकड़ लिए। उल्टे पाँव फिर आयी और पृथ्वी पर बैठकर रोने लगी। उसके चित्त ने कहा-
माधवी! यह बड़ी लज्जा की
बात है। बालाजी की चेरी सही, माना कि तुझे उनसे
प्रेम है ; किन्तु तू उसकी स्त्री नहीं है। तुझे इस समय उनक
गृह में रहना उचित नहीं है। तेरा प्रेम तुझे उनकी पत्नी नहीं बना सकता। प्रेम और
वस्तु है और सोहाग और वस्तु है। प्रेम चित की प्रवृत्ति है और ब्याह एक पवित्र
धर्म है। तब माधवी को एक विवाह का स्मरण हो आया। वर ने भरी सभा मे पत्नी की बाँह
पकड़ी थी और कहा था कि इस स्त्री को मैं अपने गृह की स्वामिनी और अपने मन की देवी
समझता रहूँगा। इस सभा के लोग, आकाश, अग्नि और देवता इसके साक्षी रहे। हा! ये कैसे शुभ शब्द है। मुझे कभी ऐसे
शब्द सुनने का मौका प्राप्त न हुआ! मैं न अग्नि को अपना
साक्षी बना सकती हूँ, न देवताओं को और न
आकाश ही को; परन्तु है अग्नि!
है आकाश के तारो! और हे
देवलोक-वासियों! तुम साक्षी रहना कि
माधवी ने बालाजी की पवित्र मूर्ति को हृदय में स्थान दिया, किन्तु किसी निकृष्ट विचार को हृदय में
न आने दिया। यदि मैंने घर के भीतर पैर रखा हो तो है अग्नि! तुम मुझे अभी जलाकर भस्म कर दो। हे
आकाश! यदि तुमने अपने अनेक
नेत्रों से मुझे गृह में जाते देखा, तो इसी क्षण मेरे ऊपर
इन्द्र का वज्र गिरा दो।
माधवी
कुछ काल तक इसी विचार मे मग्न बैठी रही। अचानक उसके कान में भक-भक की ध्वनि आयीय।
उसने चौंककर देखा तो बालाजी का कमरा अधिक प्रकाशित हो गया था और प्रकाश खिड़कियों
से बाहर निकलकर आँगन में फैल रहा था। माधवी के पाँव तले से मिट्टी निकल गयी। ध्यान
आया कि मेज पर लैम्प भभक उठा। वायु की भाँति वह बालाजी के कमरे में घुसी। देखा तो
लैम्प फटक पृथ्वी पर गिर पड़ा है और भूतल के बिछावन में तेल फैल जाने के कारण आग
लग गयी है। दूसरे किनारे पर बालाजी सुख से सो रहे थे। अभी तक उनकी निद्रा न खुली
थी। उन्होंने कालीन समेटकर एक कोने में रख दिया था। विद्युत की भाँति लपककर माधवी
ने वह कालीन उठा लिया और भभकती हुई ज्वाला के ऊपर गिरा दिया। धमाके का शब्द हुआ तो
बालाजी ने चौंककर आँखें खोली। घर मे धुआँ भरा था और चतुर्दिक तेल की दुर्गन्ध फैली
हुई थी। इसका कारण वह समझ गये। बोले- कुशल हुआ,
नहीं
तो कमरे में आग लग गयी थी।
माधवी-
जी हाँ! यह लैम्प गिर पड़ा
था।
बालाजी-
तुम बड़े अवसर से आ पहुँची।
माध्वी-
मैं यहीं बाहर बैठी हुई थी।
बालाजी
–तुमको बड़ा कष्ट हुआ। अब जाकर शयन करो।
रात बहुत हा गयी है।
माधवी– चली जाऊँगी। शयन तो नित्य ही करना है।
यअ अवसर न जाने फिर कब आये?
माधवी
की बातों से अपूर्व करुणा भरी थी। बालाजी ने उसकी ओर ध्यान-पूर्वक देखा। जब
उन्होंने पहिले माधवी को देखा था,उसक समय वह एक खिलती
हुई कली थी और आज वह एक मुरझाया हुआ पुष्प है। न मुख पर सौन्दर्य था, न नेत्रों में आनन्द की झलक, न माँग में सोहाग का संचार था, न माथे पर सिंदूर का टीका। शरीर में
आभूषाणों का चिन्ह भी न था। बालाजी ने अनुमान से जाना कि विधाता से जान कि विधाता
ने ठीक तरुणावस्था में इस दुखिया का सोहाग हरण किया है। परम उदास होकर बोले-क्यों
माधवी! तुम्हारा तो विवाह
हो गया है न?
माधवी
के कलेज मे कटारी चुभ गयी। सजल नेत्र होकर बोली- हाँ, हो गया है।
बालाजी-
और तुम्हार पति?
माधवी-
उन्हें मेरी कुछ सुध ही नहीं। उनका विवाह मुझसे नहीं हुआ।
बालाजी
विस्मित होकर बोले- तुम्हारा पति करता क्या है?
माधवी-
देश की सेवा।
बालाजी
की आँखों के सामने से एक पर्दा सा हट गया। वे माधवी का मनोरथ जान गये और बोले-
माधवी इस विवाह को कितने दिन हुए?
बालाजी
के नेत्र सजल हो गये और मुख पर जातीयता के मद का उन्माद– सा छा गया। भारत माता! आज इस पतितावस्था में भी तुम्हारे अंक
में ऐसी-ऐसी देवियाँ खेल रही हैं, जो एक भावना पर अपने
यौवन और जीवन की आशाऍं समर्पण कर सकती है। बोले- ऐसे पति को तुम त्याग क्यों नहीं
देती?
माधवी
ने बालाजी की ओर अभिमान से देखा और कहा- स्वामी जी!
आप अपने मुख से ऐसे कहें! मैं आर्य-बाला हूँ।
मैंने गान्धारी और सावित्री के कुल में जन्म लिया है। जिसे एक बार मन में अपना पति
मान ाचुकी उसे नहीं त्याग सकती। यदि मेरी आयु इसी प्रकार रोते-रोते कट जाय, तो भी अपने पति की ओर से मुझे कुछ भी
खेद न होगा। जब तक मेरे शरीर मे प्राण रहेगा मैं ईश्वर से उनक हित चाहती रहूँगी।
मेरे लिए यही क्या कमक है, जो ऐसे महात्मा के
प्रेम ने मेरे हृदय में निवास किया है? मैं इसी का अपना
सौभाग्य समझती हूँ। मैंने एक बार अपने स्वामी को दूर से देखा था। वह चित्र एक क्षण
के लिए भी आँखों से नही उतरा। जब कभी मैं बीमार हुई हूँ, तो उसी चित्र ने मेरी शुश्रुषा की है। जब
कभी मैंने वियोेग के आँसू बहाये हैं, तो उसी चित्र ने मुझे
सान्त्वना दी है। उस चित्र वाले पति को मै। कैसे त्याग दूँ? मैं उसकी हूँ और सदैव उसी का रहूँगी। मेरा हृदय
और मेरे प्राण सब उनकी भेंट हो चुके हैं। यदि वे कहें तो आज मैं अग्नि के अंक मंे
ऐसे हर्षपूर्वक जा बैठूँ जैसे फूलों की शैय्या पर। यदि मेरे प्राण उनके किसी काम
आयें तो मैं उसे ऐसी प्रसन्नता से दे दूँ जैसे कोई उपसाक अपने इष्टदेव को फूल
चढ़ाता हो।
माधवी
का मुखमण्डल प्रेम-ज्योति से अरुणा हो रहा था। बालाजी ने सब कुछ सुना और चुप हो
गये। सोचने लगे- यह स्त्री है ; जिसने केवल मेरे
ध्यान पर अपना जीवन समर्पण कर दिया है। इस विचार से बालाजी के नेत्र अश्रुपूर्ण हो
गये। जिस प्रेम ने एक स्त्री का जीवन जलाकर भस्म कर दिया हो उसके लिए एक मनुष्य के
घैर्य को जला डालना कोई बात नहीं! प्रेम के सामने
धैर्य कोई वस्तु नहीं है। वह बोले- माधवी तुम जैसी देवियाँ भारत की गौरव है। मैं
बड़ा भाग्यवान हूँ कि तुम्हारे प्रेम-जैसी अनमोल वस्तु इस प्रकार मेरे हाथ आ रही
है। यदि तुमने मेरे लिए योगिनी बनना स्वीकार किया है तो मैं भी तुम्हारे लिए इस
सन्यास और वैराग्य का त्याग कर सकता हूँ। जिसके लिए तुमने अपने को मिटा दिया है।, वह तुम्हारे लिए बड़ा-से-बड़ा बलिदान
करने से भी नहीं हिचकिचायेगा।
माधवी
इसके लिए पहले ही से प्रस्तुत थी, तुरन्त बोली- स्वामीजी! मैं परम अबला और
बुद्विहीन सत्री हूँ। परन्तु मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि निज विलास का ध्यान
आज तक एक पल के लिए भी मेरे मन मे नही आया। यदि आपने यह विचार किया कि मेर प्रेम
का उद्देश्य केवल यह क आपके चरणों में सांसारिक बन्धनों की बेड़ियाँ डाल दूँ, तो (हाथ जोड़कर) आपने इसका तत्व नहीं
समझा। मेरे प्रेम का उद्देश्य वही था, जो आज मुझे प्राप्त
हो गया। आज का दिन मेरे जीवन का सबसे शुभ दिन है। आज में अपने प्राणनाथ के सम्मुख
खड़ी हूँ और अपने कानों से उनकी अमृतमयी वाणी सुन रही हूँ। स्वामीजी! मुझे आशा न थी कि इस जीवन में मुझे यह
दिन देखने का सौभाग्य होगा। यदि मेरे पास संसार का राज्य होता तो मैं इसी आनन्द से
उसे आपके चरणों में समर्पण कर देती। मैं हाथ जोड़कर आपसे प्रार्थना करती हूँ कि
मुझे अब इन चरणों से अलग न कीजियेगा। मै। सन्यस ले लूँगी और आपके संग रहूँगी।
वैरागिनी बनूँगी, भभूति रमाऊँगी; परन्त् आपका संग न छोडूँगी। प्राणनाथ! मैंने बहुत दु:ख सहे हैं, अब यह जलन नहीं सकी जाती।
यह
कहते-कहते माधवी का कंठ रुँध गया और आँखों से प्रेम की धारा बहने लगी। उससे वहाँ न
बैठा गया। उठकर प्रणाम किया और विरजन के पास आकर
बैठ गयी। वृजरानी ने उसे गले लगा लिया और पूछा– क्या बातचीत हुई?
माधवी- जो तुम चहाती
थीं।
वृजरानी-
सच, क्या बोले?
माधवी-
यह न बताऊँगी।
वृजरानी
को मानो पड़ा हुआ धन मिल गया। बोली- ईश्वर ने बहुत दिनों में मेरा मनारेथ पूरा
किया। मे अपने यहाँ से विवाह करुँगी।
माधवी
नैराश्य भाव से मुस्करायी। विरजन ने कम्पित स्वर से कहा- हमको भूल तो न जायेगी? उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। फिर वह स्वर
सँभालकर बोली- हमसे तू बिछुड़ जायेगी।
माधवी-
मैं तुम्हें छोड़कर कहीं न जाऊँगी।
विरजन-
चल; बातें ने बना।
माधवी-
देख लेना।
विरजन-
देखा है। जोड़ा कैसा पहनेगी?
माधवी-
उज्ज्वल, जैसे बगुले का पर।
विरजन-
सोहाग का जोड़ा केसरिया रंग का होता है।
माधवी-
मेरा श्वेत रहेगा।
विरजन-
तुझे चन्द्रहार बहुत भाता था। मैं अपना दे दूँगी।
माधवी-हार
के स्थान पर कंठी दे देना।
विरजन-
कैसी बातें कर रही हैं?
माधवी-
अपने श्रृंगार की!
विरजन-
तेरी बातें समझ में नहीं आती। तू इस समय इतनी उदास क्यों है? तूने इस रत्न के लिए कैसी-कैसी तपस्याएँ
की, कैसा-कैसा योग साधा, कैसे-कैसे व्रत किये और तुझे जब वह रत्न
मिल गया तो हर्षित नहीं देख पड़ती!
माधवी-
तुम विवाह की बातीचीत करती हो इससे मुझे दु:ख होता है।
विरजन-
यह तो प्रसन्न होने की बात है।
माधवी-
बहिन! मेरे भाग्य में
प्रसन्नता लिखी ही नहीं! जो पक्षी बादलों में
घोंसला बनाना चाहता है वह सर्वदा डालियों पर रहता है। मैंने निर्णय कर लिया है कि
जीवन की यह शेष समय इसी प्रकार प्रेम का सपना
देखने में काट दूँगी।
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