प्रेमचंद
कर्तव्य और प्रेम का
संघर्ष
जब तक विरजन ससुराल से न आयी थी तब तक उसकी
दृष्टि में एक हिन्दु-पतिव्रता के कर्तव्य और आदर्श का कोई नियम स्थिर न हुआ था।
घर में कभी पति-सम्बंधी चर्चा भी न होती थी। उसने स्त्री-धर्म की पुस्तकें अवश्य
पढ़ी थीं, परन्तु उनका कोई
चिरस्थायी प्रभाव उस पर न हुआ था। कभी उसे यह ध्यान ही न आता था कि यह घर मेरा नहं
है और मुझे बहुत शीघ्र ही यहां से जाना पड़ेगा।
परन्तु जब वह ससुराल में आयी और अपने प्राणनाथ
पति को प्रतिक्षण आंखों के सामने देखने लगी तो शनै: शनै: चित्-वृतियों में
परिवर्तन होने लगा। ज्ञात हुआकि मैं कौन हूं,
मेरा
क्या कर्तव्य है, मेरा क्या र्धम और
क्या उसके निर्वाह की रीति है? अगली बातें
स्वप्नवत् जान पड़ने लगीं। हां जिस समय स्मरण हो आता कि अपराध मुझसे ऐसा हुआ है, जिसकी कालिमा को मैं मिटा नहीं सकती, तो स्वंय लज्जा से मस्तक झुका लेती और
अपने को उसे आश्चर्य होता कि मुझे लल्लू
के सम्मुख जाने का साहस कैसे हुआ! कदाचित् इस घटना को वह स्वप्न समझने की चेष्टा
करती, तब लल्लू का
सौजन्यपूर्ण चित्र उसे सामने आ जाता और वह हृदय से उसे आर्शीवाद देती, परन्तु आज जब प्रतापचंद्र की
क्षुद्र-हृदयता से उसे यह विचार करने का अवसर मिला कि लल्लू उस घटना को अभी भुला
नहीं है, उसकी दृष्टि में अब
मेरी प्रतिष्टा नहीं रही, यहां तककि वह मेरा
मुख भी नहीं देखना चाहता, तो उसे ग्लनिपूर्ण
क्रोध उत्पन्न हुआ। प्रताप की ओर से चित्त लिन हो गया और उसकी जो प्रेम और
प्रतिष्टा उसके हृदय में थी वह पल-भर में जल-कण की भांति उड़ने लगी। स्त्रीयों का
चित्त बहुत शीघ्र प्रभावग्राही होता है,जिस प्रताप के लिए वह
अपना असतित्व धूल मेंमिला देने को तत्पर थी,
वही
उसके एक बाल-व्यवहार को भी क्षमा नहीं कर सकता,
क्या
उसका हृदय ऐसा संर्कीण है? यह विचार विरजन के
हृदय में कांटें की भांति खटकने लगा।
आज से विरजन की सजीवता लुप्त हो गयी। चित्त
पर एक बोझ-सा रहने लगा। सोचतीकि जब प्रताप मुझे भूल गये और मेरी रत्ती-भर भी प्रतिष्टा
नहीं करते तो इस शोक से मै। क्यों अपना प्राण घुलाऊं? जैसे ‘राम
तुलसी से, वैसे तुलसी राम से’। यदि उन्हें मझसे घृणा है, यदि वह मेरा मुख नहीं देखना चाहते हैं, तो मैं भी उनका मुख देखने से घ्रणा करती
हूं और मुझे उनसे मिलने की इच्छा नहीं। अब वह अपने ही ऊपर झल्ला उठतीकि मैं
प्रतिक्षण उन्हीं की बातें क्यों सोचती हूं और संकल्प करती कि अब उनका ध्यान भी मन
में न आने दूंगी, पर तनिक देर में
ध्यान फिर उन्हीं की ओर जा पहुंचता और वे ही विचार उसे बेचैन करने लगते। हृदय केइस
संताप को शांत करने केलिए वह कमलाचरण को सच्चे प्रेम का परिचय देने लगी। वह थोड़ी
देर के लिए कहीं चला जाता, तो उसे उलाहना देती।
जितने रुपये जमा कर रखे थे, वे सब दे दिये कि
अपने लिए सोने की घड़ी और चेन मोल ले लो। कमला ने इंकारकिया तो उदास हो गयी। कमला
यों ही उसका दास बना हुआ था, उसके प्रेम का
बाहुल्य देखकर और भी जान देने लगा। मित्रों ने सुना तो धन्यवाद देने लगे। मियां
हमीद और सैयद अपने भाग्य को धिकारने लगे कि ऐसी स्नेही स्त्री हमको न मिली।
तुम्हें वह बिन मांगे ही रुपये देती है और यहां
स्त्रीयों की खींचतान से नाक में दम है। चाहेह अपने पास कानी कौड़ी न हो, पर उनकी इच्छा अवश्य पूरी होनी चाहिये, नहीं तो प्रलय मच जाय। अजी और क्या कहें, कभी घर में एक बीड़े पान के लिए भी चले
जाते हैं, तो वहां भी दस-पांच
उल्टी-सीधी सुने बिना नहीं चलता। ईश्वर हमको भी तुम्हारी-सी बीवी दे।
यह
सब था, कमलाचरण भी प्रेम
करता था और वृजरानी भी प्रेम करती थी परन्तु प्रेमियों को संयोग से जो हर्ष
प्राप्त होता है, उसका विरजन के मुख पर
कोई चिह्न दिखायी नहीं देता था। वह दिन-दिन दुबली और पतली होती जाती थी। कमलाचरण
शपथ दे-देकर पूछताकि तुम दुबली क्यों होती जाती हो?
उसे प्रसन्न् करने के जो-जो उपाय हो सकते करता,
मित्रों
से भी इस विषय में सम्मति लेता, पर कुछ लाभ न होता
था। वृजरानी हंसकर कह दिया करतीकि तुम कुछ चिन्ता न करो, मैं बहुत अच्छी तरह हूं। यह कहते-कहते
उठकर उसके बालों में कंघी लगाने लगती या पंखा झलने लगती। इन सेवा और सत्कारों से
कमलाचरण फूलर न समाता। परन्तु लकड़ी के ऊपर रंग और रोगन लगाने से वह कीड़ा नहीं
मरता, जो उसके भीतर बैठा
हुआ उसका कलेजा खाये जाता है। यह विचार कि प्रतापचंद्र मुझे भूल गये और मैं
उनकी में गिर गयी, शूल की भांति उसके हृदय को व्यथित किया
करता था। उसकी दशा दिनों – दिनों बिगड़ती गयी – यहां तक कि बिस्तर पर से उठना तक कठिन
हो गया। डाक्टरों की दवाएं होने लगीं।
उधर प्रतापचंद्र का प्रयाग में जी लगने लगा
था। व्यायाम का तो उसे व्यसन था ही। वहां इसका बड़ा प्रचार था। मानसिक बोझ हलका
करने के लिए शारीरिक श्रम से बढ़कर और कोई उपाय नहीं है। प्रात: कसरत करता, सांयकाल और फुटबाल खलता, आठ-नौ बजे रात तक वाटिका की सैर करता।
इतने परिश्रम के पश्चात् चारपाई पर गिरता तो प्रभात होने ही पर आंख खुलती। छ: ही
मास में क्रिकेट और फुटबाल का कप्तान बन बैठा और दो-तीन मैच ऐसे खेले कि सारे नगर
में धूम हो गयी।
आज क्रिकेट में अलीगढ़ के निपुण खिलाडियों से
उनका सामना था। ये लोग हिन्दुस्तान के प्रसिद्व खिलाडियों को परास्त करविजय का
डंका बजाते यहां आये थे। उन्हें अपनी विजय में तनिक भी संदेह न था। पर प्रयागवाले
भी निराश न थे। उनकी आशा प्रतापचंद्र पर निर्भर थी। यदि वह आध घण्टे भी जम गया, तो रनों के ढेर लगा देगा। और यदि इतनी
ही देर तक उसका गेंद चल गया, तो फिर उधर का
वार-न्यारा है। प्रताप को कभी इतना बड़ा मैच खेलने का संयोग नमिला था। कलेजा धड़क
रहा था कि न जाने क्या हो। दस बजे खेल प्रारंभ हुआ। पहले अलीगढ़वालों के खेलने की बारी
आयी। दो-ढाई घंटे तक उन्होंने खूब करामात दिखलाई। एक बजते-बजते खेल का पहिला भाग
समाप्त हुआ। अलीगढ़ ने चार सौ रन किये। अब प्रयागवालों की बारी आयी पर खिलाडियों
के हाथ-पांव फूले हुए थे। विश्वास हो गया कि हम न जीत सकेंगे। अब खेल का बराबर
होना कठिन है। इतने रन कौन करेगा। अकेला प्रताप क्या बना लेगा ? पहिला खिलाड़ी आया और
तीसरे गेंद मे विदा हो गया। दूसरा खिलाड़ी आया और कठिनता से पॉँच गेंद खेल सका।
तीसरा आया और पहिले ही गेंद में उड़ गया। चौथे ने आकर दो-तीन हिट लगाये, पर जम न सका। पॉँचवे साहब कालेज मे एक
थे, पर यां उनकी भी एक न चली। थापी
रखते-ही-रखते चल दिये। अब प्रतापचन्द्र दृढ़ता से पैर उठाता, बैट घुमाता मैदान में आयां दोनों
पक्षवालों ने करतल ध्वनि की। प्रयोगवालों की श अकथनीय थी। प्रत्येक मनुष्य की
दृष्टि प्रतापचन्द्र की ओर लगी हुई थी। सबके हृदय धड़क रहे थे। चतुर्दिक सन्नाटा
छाया हुआ था। कुछ लोग दूर बैठकर र्दश्वर से प्रार्थना कर रहे थे कि प्रताप की विजय
हो। देवी-देवता स्मरण किये जो रहे थे। पहिला गेंद आया, प्रताप नेखली दिया। प्रयोगवालों का साहस
घट गया। दूसरा आया, वह भी खाली गया।
प्रयागवालों का, कलेजा नाभि तक बैठ गया।
बहुत से लोग छतरी संभाल घर की ओर चले। तीसरा गेंद आया। एक पड़ाके की ध्वनि हुई ओर
गेंद लू (गर्म हवा) की भॉँति गगन भेदन करता हुआ हिट पर खड़े होनेवाले खिलाड़ी से
ससौ गज ओग गिरा। लोगों ने तालियॉँ बजायीयं। सूखे धान में पानी पड़ा। जानेवाले ठिठक
गये। निरशें को आशा बँधी। चौथा गंद आया और पहले गेंद से दस गज आगे गिरा। फील्डर
चौंके, हिट पर मदद पहँचायी! पॉँचवॉँ गेंद आया और कट पर गया। इतने
में ओवर हुआ। बालर बदले, नये बालर पूरे बधिक
थे। घातक गेंद फेंकते थे। पर उनके पहिले ही गेंद को प्रताप के आकाश में भेजकर
सूर्य से र्स्पश करा दिया। फिर तो गेंद और उसकी थापी में मैत्री-सी हो गयी। गेंद
आता और थापी से पार्श्व ग्रहण करके कभी पूर्व का मार्ग लेता, कभी पश्चिम का , कभी उत्तर का और कभी दक्षिण का, दौड़ते-दौड़ते फील्डरों की सॉँसें फूल
गयीं, प्रयागवाले उछलते थे
और तालियॉँ बजाते थे। टोपियॉँ वायु में
उछल रही थीं। किसी न रुपये लुटा दिये और किसी ने अपनी सोने की जंजीर लुटा दी।
विपक्षी सब मन मे कुढ़ते, झल्लाते, कभी क्षेत्र का क्रम परिवर्तन करते, कभी बालर परिवर्तन करते। पर चातुरी और
क्रीड़ा-कौशल निरर्थक हो रहा था। गेंद की थापी से मित्रता दृढ़ हो गयी थी। पूरे दो
घन्टे तक प्रताप पड़ाके, बम-गोले और हवाइयॉँ
छोड़तमा रहा और फील्डर गंद की ओर इस प्रकार लपकते जैसे बच्चे चन्द्रमा की ओर लपकते
हैं। रनों की संख्या तीन सौ तक पहुँच गई। विपक्षियों के छक्के छूटे। हृदय ऐसा
भर्रा गया कि एक गेंद भी सीधा था। यहां तक
कि प्रताप ने पचास रन और किये और अब उसने अम्पायर से तनिक विश्राम करने के लिए
अवकाश मॉँगा। उसे आता देखकर सहस्रों मनुष्य उसी ओरदौड़े और उसे बारी-बारी से गोद
में उठाने लगे। चारों ओर भगदड़ मच गयी। सैकड़ो छाते, छड़ियॉँ
टोपियॉँ और जूते ऊर्ध्वगामी हो गये मानो वे भी उमंग में उछल रहे थे। ठीक उसी समय
तारघर का चपरासी बाइसिकल पर आता हुआ दिखायी दिया। निकट आकर बोला-‘प्रतापचंद्र किसका नाम है!’ प्रताप ने चौंककर उसकी ओर देखा और
चपरासी ने तार का लिफाफा उसके हाथ में रख दिया। उसे पढ़ते ही प्रताप का बदन पीला
हो गया। दीर्घ श्वास लेकर कुर्सी पर बैठ गया और बोरला-यारो ! अब मैच का निबटारा तुम्हारे हाथ में
है। मेंने अपना कर्तव्य-पालन कर दिया, इसी डाक से घर चला
जाँऊगा।
यह कहकर वह बोर्डिंग हाउस की ओर चला। सैकड़ों
मनुष्य पूछने लगे-क्या है ? क्या है
? लोगों के मुख पर उदासी छा गयी पर उसे बात करने
का कहॉँ अवकाश ! उसी समय तॉँगे पर
चढ़ा और स्टेशन की ओर चला। रास्ते-भर उसके मन में तर्क-वितर्क होते रहे। बार-बार
अपने को धिक्कार देता कि क्यों न चलते समय
उससे मिल लिया ? न जाने अब भेंट हो कि न हो। ईश्वर न करे कहीं
उसके दर्शन से वंचित रहूँ; यदि रहा तो मैं भी मुँह मे कालिख पोत कहीं मर
रहूँगा। यह सोच कर कई बार रोया। नौ बजे रात को गाड़ी बनारस पहुँची। उस पर से उतरते
ही सीधा श्यामाचरण के घर की ओर चला। चिन्ता के मारे ऑंखें डबडबायी हुईं थी और
कलेजा धड़क रहा था। डिप्टी साहब सिर झुकाये कुर्सी पर बैठे थे और कमला डाक्टर साहब
के यहॉँ जाने को उद्यत था। प्रतापचन्द्र को देखते ही दौड़कर लिपट गया। श्यामाचरण
ने भी गले लगाया और बोले-क्या अभी सीधे इलाहाबाद से चले आ रहे हो ?
प्रताप-जी हॉँ !
आज माताजी का तार पहुँचा कि विरजन की बहुत बुरी दशा है। क्या अभी वही दशा है ?
श्यामाचरण-क्या कहूँ इधर दो-तीन मास से
दिनोंदिन उसका शरीर क्षीण होता जाता है, औषधियों का कुछ भी
असर नहीं होता। देखें, ईश्वर की क्या इच्छा
है! डाक्टर साहब तो कहते थे, क्षयरोग है। पर वैद्यराज जी
हृदय-दौर्बल्य बतलाते हैं।
विरजन को जब से सूचना मिली कि प्रतापचन्द्र
आये हैं, तब से उसक हृदय में
आशा और भय घुड़दौड़ मची हुई थी। कभी सोचती कि घर आये होंगे, चाची ने बरबस ठेल-ठालकर यहॉँ भेज दिया
होगा। फिर ध्यान हुआ, हो न हो, मेरी बीमारी का समाचार पा, घबड़ाकर चले आये हों, परन्तु नहीं। उन्हें मेरी ऐसी क्या
चिन्ता पड़ी है ? सोचा होगा-नहीं मर न
जाए, चलूँ सांसारिक
व्यवहार पूरा करता आऊं। उन्हें मेरे मरने-जीने का क्या सोच ? आज मैं भी महाशय से जी खोलकर बातें
करुंगी ? पर नहीं बातों की
आवश्यकता ही क्या है ? उन्होंने चुप साधी है, तो मैं क्या बोलूँ ? बस इतना कह दूँगी कि बहुत अच्छी हूँ और
आपके कुशल की कामना रखती हूँ ! फिर मुख न खोलूँगी ! और मैं यह मैली-कुचैली साड़ी क्यों
पहिने हूँ ? जो अपना सहवेदी न हो उसके आगे यह वेश बनाये रखने
से लाभ? वह अतिथि की भॉँति
आये हैं। मैं भी पाहुनी की भॉँति उनसे मिलूँगी। मनुष्य का चित्त कैसा चचंल है? जिस मनुष्य की अकृपा ने विरजन की यह
गति बना दी थी, उसी को जलाने के लिए
ऐसे-ऐसे उपाय सोच रही है।
दस बजे का समय था। माधवी बैठी पख झल रही थी।
औषधियों की शीशियाँ इधर-उधर पड़ी हुई थीं और विरजन चारपाई पर पड़ी हुई ये ही सब
बातें सोच रही थी कि प्रताप घर में आया। माधवी चौंककर बोली-बहिन, उठो आ गये। विरजन झपटकर उठी और चारपाई
से उतरना चाहती थी कि निर्बलता के कारण पृथ्वी पर गिर पड़ी। प्रताप ने उसे सँभाला
और चारपाई पर लेटा दिया। हा! यह वही विरजन है जो
आज से कई मास पूर्व रुप एवं लावाण्य की
मूर्ति थी, जिसके मुखड़े पर चमक
और ऑखों में हँसी का वपास था, जिसका भाषण श्यामा का
गाना और हँसना मन का लुभानाथ। वह रसीली ऑखोंवाली, मीठी
बातों वाली विरजन आज केवल अस्थिचर्मावशेष है। पहचानी नहीं जाती। प्रताप की ऑखों
में ऑंसूं भर आये। कुशल पूछना चाहता था, पर मुख से केवल इतना
निकला-विरजन ! और नेत्रों से जल-बिन्दु बरसने लगे। प्रेम की
ऑंखे मनभावों के परखने की कसौटी है। विरजन
ने ऑंख उठाकर देखा और उन अश्रु-बिन्दुओं ने उसके मन का सारा मैल धो दिया।
जैसे कोई सेनापति आनेवाले युद्व का चित्र मन
में सोचता है और शत्रु को अपनी पीठ पर देखकर बदहवास हो जाता है और उसे निर्धरित
चित्र का कुछ ध्यान भी नहीं रहता, उसी प्रकार विरजन
प्रतापचन्द्र को अपने सम्मुख देखकर सब बातें भूल गयी, जो अभी पड़ी-पड़ी सोच रही थी ! वह प्रताप को रोते देखकर अपना सब दु:ख
भूल गयी और चारपाई से उठाकर ऑंचल से ऑसूं पोंछने लगी। प्रताप, जिसे अपराधी कह सकते हैं, इस समय दीन बना हुआ था और विरजन –जिसने अपने को सखकर इस श तक पहुँचाया
था-रो-रोकर उसे कह रही थी- लल्लू चुप रहो, ईश्वर जानता है, मैं भली-भॉँति अच्छी हूँ। मानो अच्छा न
होना उसका अपराध था। स्त्रीयों की संवेदनशीलता कैसी कोमल होती है! प्रतापचन्द्र के एक सधारण संकोच ने
विरजन को इस जीवन से उपेक्षित बना दिया था। आज ऑंसू कुछ बूँदों की उसके हृदय के उस
सन्ताप, उस जलन और उस अग्नि
कोशन्त कर दिया, जो कई महीनों से उसके
रुधिर और हृदय को जला रही थी। जिस रेग को बड़े-बड़े वैद्य और डाक्टर अपनी औषधि तथा
उपाय से अच्छा न कर सके थे, उसे अश्रु-बिन्दुओं
ने क्षण-भर में चंगा कर दिया। क्या वह पानी के बिन्दु अमृत के बिन्दु थे ?
प्रताप ने धीरज धरकर पूछा- विरजन! तुमने अपनी क्या गति बना रखी है ?
विरजन (हँसकर)- यह गति मैंने नहीं बनायी, तुमने बनायी है।
प्रताप-माताजी का तार न पहुँचा तो मुझे सूचना
भी न होती।
विरजन-आवश्यकता ही क्या थी ? जिसे भुलाने के लिए तो तुम प्रयाग चले गए, उसके मरने-जीने की तुम्हें क्या चिन्ता ?
प्रताप-बातें बना रही हो। पराये को क्यों
पत्र लिखतीं ?
विरजन-किसे आशा थी कि तुम इतनी दूर से आने का
या पत्र लिखने का कष्ट उठाओगे ? जो द्वार से आकर फिर जाए और मुख देखने से घण करे
उसे पत्र भेजकर क्या करती?
प्रताप- उस समय लौट जाने का जितना दु:ख मुझे
हुआ, मेरा चित्त ही जानता
है। तुमने उस समय तक मेरे पास कोई पत्र न भेजा था। मैंने सझ, अब सुध भूल गयी।
विरजन-यदि मैं तुम्हारी बातों को सच न समझती
होती हो कह देती कि ये सब सोची हुई बातें हैं।
प्रताप-भला जो समझो, अब यह बताओ कि कैसा जी है? मैंने तुम्हें पहिचाना नहीं, ऐसा मुख फीका पड़ गया है।
विरजन- अब अच्छी हो जाँऊगी, औषधि मिल गयी।
प्रताप सकेत समझ गया। हा, शोक! मेरी तनिक-सी चूक ने
यह प्रलय कर दिया। देर तक उसे सझता रहा और प्रात:काल जब वह अपने घर तो चला तो
विरजन का बदन विकसित था। उसे विश्वास हो गया कि लल्लू मुझे भूले नहीं है और मेरी
सुध और प्रतिष्ठा उनके हृदय में विद्यामन है। प्रताप ने उसके मन से वह कॉँटा निकाल
दिया, जो कई मास से खटक रहा
था और जिसने उसकी यह गति कर रखी थी। एक ही सप्ताह में उसका मुखड़ा स्वर्ण हो गया, मानो कभी बीमार ही न थी।
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