Wednesday, December 26, 2012

Munshi Premchand ki Kahani - Sirf Ek Aawaz


प्रेमचंद

सिर्फ एक आवाज



सु
बह का वक्त था। ठाकुर दर्शनसिंह के घर में एक हंगामा बरपा था। आज रात को चन्द्रग्रहण  होने वाला था। ठाकुर साहब अपनी बूढ़ी ठकुराइन के साथ गंगाजी जाते  थे इसलिए सारा घर उनकी पुरशोर तैयारी में लगा हुआ था। एक बहू उनका फटा हुआ कुर्ता टॉँक रही थी, दूसरी बहू उनकी पगड़ी लिए सोचती थी, कि कैसे इसकी मरम्मत करूँं दोनो लड़कियॉँ नाश्ता तैयार करने में तल्लीन थीं। जो ज्यादा दिलचस्प काम था और बच्चों ने अपनी आदत के अनुसार एक कुहराम मचा रक्खा था क्योंकि हर एक आने-जाने के मौके पर उनका रोने का जोश उमंग पर होत था। जाने के वक्त साथा जाने के लिए रोते, आने के वक्त इसलिए रोते किशरीनी का बॉँट-बखरा मनोनुकूल नहीं हुआ। बढ़ी ठकुराइन बच्चों को फुसलाती थी और बीच-बीच में अपनी बहुओं को समझाती थी-देखों खबरदार ! जब तक उग्रह न हो जाय, घर से बाहर न निकलना। हँसिया, छुरी ,कुल्हाड़ी , इन्हें हाथ से मत छुना। समझाये देती हूँ, मानना चाहे न मानना। तुम्हें मेरी बात की परवाह है। मुंह में पानी की बूंदे न पड़ें। नारायण के घर विपत पड़ी है। जो साधुभिखारी दरवाजे पर आ जाय उसे फेरना मत। बहुओं ने सुना और नहीं सुना। वे मना रहीं थीं कि किसी तरह यह यहॉँ से टलें। फागुन का महीना है, गाने को तरस गये। आज खूब गाना-बजाना होगा।
   ठाकुर साहब थे तो बूढ़े, लेकिन बूढ़ापे का असर दिल तक नहीं पहुँचा था। उन्हें इस बात का गर्व था कि कोई ग्रहण गंगा-स्नान के बगैर नहीं छूटा। उनका ज्ञान आश्चर्य जनक था। सिर्फ पत्रों को देखकर महीनों पहले सूर्य-ग्रहण और दूसरे पर्वो के दिन बता देते थे। इसलिए गाँववालों की निगाह में उनकी इज्जत अगर पण्डितों से ज्यादा न थी तो कम भी न थी। जवानी में कुछ दिनों फौज में नौकरी भी की थी। उसकी गर्मी अब तक बाकी थी, मजाल न थी कि कोई उनकी तरफ सीधी आँख से देख सके। सम्मन लानेवाले एक चपरासी को ऐसी व्यावहारिक चेतावनी दी थी जिसका उदाहरण आस-पास के दस-पॉँच गॉँव में भी नहीं मिल सकता। हिम्मत और हौसले के कामों में अब भी आगे-आगे रहते थे किसी काम को मुश्किल बता देना, उनकी हिम्मत को प्रेरित कर देना था। जहॉँ सबकी जबानें बन्द हो जाएँ, वहॉँ वे शेरों की तरह गरजते थे। जब कभी गॉँव में दरोगा जी तशरीफ लाते तो ठाकुर साहब ही का दिल-गुर्दा था कि उनसे आँखें मिलाकर आमने-सामने बात कर सकें। ज्ञान की बातों को लेकर छिड़नेवाली बहसों के मैदान में भी उनके कारनामे कुछ कम शानदार न थे। झगड़ा पण्डित हमेशा उनसे मुँह छिपाया करते। गरज, ठाकुर साहब का स्वभावगत गर्व और आत्म-विश्वास उन्हें हर बरात में दूल्हा बनने पर मजबूर कर देता था। हॉँ, कमजोरी इतनी थी कि अपना आल्हा भी आप ही गा लेते और मजे ले-लेकर क्योंकि रचना को रचनाकार ही खूब बयान करता है!


ब दोपहर होते-होते ठाकुराइन गॉँव से चले तो सैंकड़ों आदमी उनके साथ थे और पक्की सड़क पर पहुँचे, तो यात्रियों का ऐसा तॉँता लगा हुआ था कि जैसे कोई बाजार है। ऐसे-ऐसे बुढ़ें लाठियॉँ टेकते या डोलियों पर सवार चले जाते थे जिन्हें तकलीफ देने की यमराज ने भी कोई जरूरत न समझी थी। अन्धे दूसरों की लकड़ी के सहारे कदम बढ़ाये आते थे। कुछ आदमियों ने अपनी बूढ़ी माताओं को पीठ पर लाद लिया था। किसी के सर पर कपड़ों की पोटली, किसी के कन्धे पर लोटा-डोर, किसी के कन्धे पर काँवर। कितने ही आदमियों ने पैरों पर चीथड़े लपेट लिये थे, जूते कहॉँ से लायें। मगर धार्मिक उत्साह का यह वरदान था कि मन किसी का मैला न था। सबके चेहरे खिले हुए, हँसते-हँसते बातें करते चले जा रहे थें कुछ औरतें गा रही थी:
चॉँद सूरज दूनो लोक के मालिक
एक    दिना   उनहूँ   पर    बनती
हम   जानी   हमहीं    पर   बनती

ऐसा मालूम होता था, यह आदमियों की एक नदी थी, जो सैंकड़ों छोटे-छोटे नालों और धारों को लेती हुई समुद्र से मिलने के लिए जा रही थी।
जब यह लोग गंगा के किनारे पहुँचे तो तीसरे पहर का वक्त था लेकिन मीलों तक कहीं तिल रखने की जगह न थी। इस शानदार दृश्य से दिलों पर ऐसा रोब  और भक्ति का ऐसा भाव छा जाता था कि बरबस गंगा माता की जय की सदायें बुलन्द हो जाती थीं। लोगों के विश्वास उसी नदी की तरह उमड़े हुए थे और वह नदी!  वह लहराता हुआ नीला मैदान! वह प्यासों की प्यास बुझानेवाली! वह निराशों की आशा!  वह वरदानों की देवी! वह पवित्रता का स्त्रोत! वह मुट्ठी भर खाक को आश्रय  देनेवीली गंगा हँसती-मुस्कराती थी और उछलती थी। क्या इसलिए कि आज वह अपनी चौतरफा इज्जत पर फूली न समाती थी या इसलिए कि वह उछल-उछलकर अपने प्रेमियों के गले मिलना चाहती थी जो उसके दर्शनों के लिए मंजिल तय करके आये थे! और उसके परिधान की प्रशंसा किस जबान से हो, जिस सूरज से चमकते हुए तारे टॉँके थे और जिसके किनारों को उसकी किरणों ने रंग-बिरंगे, सुन्दर और गतिशील फूलों से सजाया था।
   अभी ग्रहण लगने में धण्टे की देर थी। लोग इधर-उधर टहल रहे थे। कहीं मदारियों के खेल थे, कहीं चूरनवाले की लच्छेदार बातों के चमत्कार। कुछ लोग मेढ़ों की कुश्ती देखने के लिए जमा थे। ठाकुर साहब भी अपने कुछ भक्तों के साथ सैर को निकले।  उनकी हिम्मत ने गवारा न किया कि इन बाजारू दिलचस्पियों में शरीक हों। यकायक उन्हें एक बड़ा-सा शामियाना तना हुआ नजर आया, जहॉँ ज्यादातर पढ़े-लिखे लोगों की भीड़ थी। ठाकुर साहब ने अपने साथियों को एक किनारे खड़ा कर दिया और खुद गर्व से ताकते हुए फर्श पर जा बैठे क्योंकि उन्हें विश्वास था कि यहॉँ उन पर देहातियों की ईर्ष्या--दृष्टि पड़ेगी और सम्भव है कुछ ऐसी बारीक बातें भी मालूम हो जायँ तो उनके भक्तों को उनकी सर्वज्ञता का विश्वास दिलाने में काम दे सकें।
यह एक नैतिक अनुष्ठान था। दो-ढाई हजार आदमी बैठे हुए एक मधुरभाषी वक्ता का भाषणसुन रहे थे। फैशनेबुल लोग ज्यादातर अगली पंक्ति में बैठे हुए थे जिन्हें कनबतियों का इससे अच्छा मौका नहीं मिल सकता था। कितने ही अच्छे कपड़े पहने हुए लोग इसलिए दुखी नजर आते थे कि उनकी बगल में निम्न श्रेणी के लोग बैठे हुए थे। भाषण दिलचस्त मालूम पड़ता था। वजन ज्यादा था और चटखारे कम, इसलिए तालियॉँ नहीं बजती थी।
                             ३
क्ता ने अपने भाषण में कहा
मेरे प्यारे दोस्तो, यह हमारा और आपका कर्तव्य है। इससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण, ज्यादा परिणामदायक और कौम के लिए ज्यादा शुभ और कोई कर्तव्य नहीं है। हम मानते हैं कि उनके आचार-व्यवहार की दशा अत्यंत करुण है। मगर विश्वास मानिये यह सब हमारी करनी है। उनकी इस लज्जाजनक सांस्कृतिक स्थिति का जिम्मेदार हमारे सिवा और कौन हो सकता है? अब इसके सिवा और कोई इलाज नहीं हैं कि हम उस घृणा और उपेक्षा को; जो उनकी तरफ से हमारे दिलों में बैठी हुई है, घोयें और खूब मलकर धोयें। यह आसान काम नहीं है। जो कालिख कई हजार वर्षो से जमी हुई है, वह आसानी से नहीं मिट सकती। जिन लोगों की छाया से हम बचते आये हैं, जिन्हें हमने जानवरों से भी जलील समझ रक्खा है, उनसे गले मिलने में हमको त्याग और साहस और परमार्थ से काम लेना पड़ेगा। उस त्याग से जो कृष्ण में था, उस हिम्मत से जो राम में थी, उस परमार्थ से जो चैतन्य और गोविन्द में था। मैं यह नहीं कहता कि आप आज ही उनसे शादी के रिश्ते जोडें या उनके साथ बैठकर खायें-पियें। मगर क्या यह भी मुमकिन नहीं है कि आप उनके साथ सामान्य सहानुभूति, सामान्य मनुष्यता, सामान्य सदाचार से पेश आयें? क्या यह सचमुच असम्भव बात है? आपने कभी ईसाई मिशनरियों को देखा है? आह, जब मैं एक उच्चकोटि का सुन्दर, सुकुमार, गौरवर्ण लेडी को अपनी गोद में एक कालाकलूटा बच्च लिये हुए देखता हूँ जिसके बदन पर फोड़े हैं, खून है और गन्दगी हैवह सुन्दरी उस बच्चे को चूमती है, प्यार करती है, छाती से लगाती हैतो मेरा जी चाहता है उस देवी के कदमों पर सिर रख दूँ। अपनी नीचता, अपना कमीनापन, अपनी झूठी बड़ाई, अपने ह्रदय की संकीर्णता मुझे कभी इतनी सफाई से नजर नहीं आती। इन देवियों के लिए जिन्दगी में क्या-क्या संपदाएँ, नहीं थी, खुशियॉँ बॉँहें पसारे हुए उनके इन्तजार में खड़ी थी। उनके लिए दौलत की सब सुख-सुविधाएँ थीं। प्रेम के आकर्षण थे। अपने आत्मीय और स्वजनों की सहानुभूतियॉँ थीं और अपनी प्यारी मातृभूमि का आकर्षण था। लेकिन इन देवियों ने उन तमाम नेमतों, उन सब सांसारिक संपदाओं को सेवा, सच्ची निस्वार्थ सेवा पर बलिदान कर दिया है ! वे ऐसी बड़ी कुर्बानियॉँ कर सकती हैं, तो हम क्या इतना भी नहीं कर सकते कि अपने अछूत भाइयों से हमदर्दी का सलूक कर सकें? क्या हम सचमुच ऐसे पस्त-हिम्मत, ऐसे बोदे, ऐसे बेरहम हैं? इसे खूब समझ लीजिए कि आप उनके साथ कोई रियायत, कोई मेहरबानी नहीं कर रहें हैं। यह उन पर कोई एहसान नहीं है। यह आप ही के लिए जिन्दगी और मौत का सवाल है। इसलिए मेरे भाइयों और दोस्तो, आइये इस मौके पर शाम के वक्त पवित्र गंगा नदी के किनारे काशी के पवित्र स्थान में हम मजबूत दिल से प्रतिज्ञा करें कि आज से हम अछूतों के साथ भाई-चारे का सलूक करेंगे, उनके तीज-त्योहारों में शरीक होंगे और अपने त्योहारों में उन्हें बुलायेंगे। उनके गले मिलेंगे और उन्हें अपने गले लगायेंगे! उनकी खुशियों में खुश और उनके दर्दों मे दर्दमन्द होंगे, और चाहे कुछ ही क्यों न हो जाय, चाहे ताना-तिश्नों और जिल्लत का सामना ही क्यों न करना पड़े, हम इस प्रतिज्ञा पर कायम रहेंगे। आप में सैंकड़ों जोशीले नौजवान हैं जो बात के धनी और इरादे के मजबूत हैं। कौन यह प्रतिज्ञा करता है? कौन अपने नैतिक साहस का परिचय देता है? वह अपनी जगह पर खड़ा हो जाय और ललकारकर कहे कि मैं यह प्रतिज्ञा करता हूँ और मरते दम तक इस पर दृढ़ता से कायम रहूँगा।
                         

सू
रज गंगा की गोद में जा बैठा था और मॉँ प्रेम और गर्व से मतवाली जोश में उमड़ी हुई रंग केसर को शर्माती और चमक में सोने की लजाती थी। चार तरफ एक रोबीली खामोशी छायी थीं उस सन्नाटे में संन्यासी की गर्मी और जोश से भरी हुई बातें गंगा की लहरों और गगनचुम्बी मंदिरों में समा गयीं। गंगा एक गम्भीर मॉँ की निराशा के साथ हँसी और देवताओं ने अफसोस से सिर झुका लिया, मगर मुँह से कुछ न बोले।
     संन्यासी की जोशीली पुकार फिजां में जाकर गायब हो गई, मगर उस मजमे में किसी आदमी के दिल तक न पहुँची। वहॉँ कौम पर जान देने वालों की कमी न थी: स्टेजों पर कौमी तमाशे खेलनेवाले कालेजों के होनहार नौजवान, कौम के नाम पर मिटनेवाले पत्रकार, कौमी संस्थाओं के मेम्बर, सेक्रेटरी और प्रेसिडेंट, राम और कृष्ण के सामने सिर झुकानेवाले सेठ और साहूकार, कौमी कालिजों के ऊँचे हौंसलोंवाले प्रोफेसर और अखबारों में कौमी तरक्कियों की खबरें पढ़कर खुश होने वाले दफ्तरों के कर्मचारी हजारों की तादाद में मौजूद थे। आँखों पर सुनहरी ऐनकें लगाये, मोटे-मोटे वकीलों क एक पूरी फौज जमा थी। मगर संन्यासी के उस गर्म भाषण से एक दिल भी न पिघला क्योंकि  वह पत्थर के दिल थे जिसमें दर्द और घुलावट न थी, जिसमें सदिच्छा थी मगर कार्य-शक्ति न थी, जिसमें बच्चों की सी इच्छा थी मर्दो कासा इरादा न था।
     सारी मजलिस पर सन्नाटा छाया हुआ था। हर आदमी सिर झुकाये फिक्र में डूबा हुआ नजर आता था। शर्मिंदगी किसी को सर उठाने न देती थी और आँखें झेंप में मारे जमीन में गड़ी हुई थी। यह वही सर हैं जो कौमी चर्चों पर उछल पड़ते थे, यह वही आँखें हैं जो किसी वक्त राष्ट्रीय गौरव की लाली से भर जाती थी। मगर कथनी और करनी में आदि और अन्त का अन्तर है। एक व्यक्ति को भी खड़े होने का साहस न हुआ। कैंची की तरह चलनेवाली जबान भी ऐसे महान् उत्तरदायित्व के भय से बन्द हो गयीं।
    
5

ठा
कुर दर्शनसिंह अपनी जगी पर बैठे हुए इस दृश्य को बहुत गौर और दिलचस्पी से देख रहे थे। वह अपने मार्मिक विश्वासो में चाहे कट्टर हो या न हों, लेकिन सांस्कृतिक मामलों में वे कभी अगुवाई करने के दोषी नहीं हुए थे। इस पेचीदा और डरावने रास्ते में उन्हें अपनी बुद्धि और विवेक पर भरोसा नहीं होता था। यहॉं तर्क और युक्ति को भी उनसे हार माननी पड़ती थी। इस मैदान में वह अपने घर की स्त्रियों की इच्छा पूरी करने ही अपना कर्त्तव्य समझते थे और चाहे उन्हें खुद किसी मामले में कुछ एतराज भी हो लेकिन यह औरतों का मामला था और इसमें वे हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे क्योंकि इससे परिवार की व्यवस्था में हलचल और गड़बड़ी पैदा हो जाने की जबरदस्त आशंका रहती थी। अगर किसी वक्त उनके कुछ जोशीले नौजवान दोस्त इस कमजोरी पर उन्हें आड़े हाथों लेते तो वे बड़ी बुद्धिमत्ता से कहा करते थेभाई, यह औरतों के मामले हैं, उनका जैसा दिल चाहता है, करती हैं, मैं बोलनेवाला कौन हूँ। गरज यहॉँ उनकी फौजी गर्म-मिजाजी उनका साथ छोड़ देती थी। यह उनके लिए तिलिस्म की घाटी थी जहॉँ होश-हवास बिगड़ जाते थे और अन्धे अनुकरण का पैर बँधी हुई गर्दन पर सवार हो जाता था।
     लेकिन यह ललकार सुनकर वे अपने को काबू में न रख सके। यही वह मौका था जब उनकी हिम्मतें आसमान पर जा पहुँचती थीं। जिस बीड़े को कोई न उठाये उसे उठाना उनका काम था। वर्जनाओं से उनको आत्मिक प्रेम था। ऐसे मौके पर वे नतीजे और मसलहत से बगावत कर जाते थे और उनके इस हौसले में यश के लोभ को उतना दखल नहीं था जितना उनके नैसर्गिक स्वाभाव का। वर्ना यह असम्भव था कि एक ऐसे जलसे में जहॉँ ज्ञान और सभ्यता की धूम-धाम थी, जहॉँ सोने की ऐनकों से रोशनी और तरह-तरह के परिधानों से दीप्त चिन्तन की किरणें निकल रही थीं, जहॉँ कपड़े-लत्ते की नफासत से रोब और मोटापे से प्रतिष्ठा की झलक आती थी, वहॉँ एक देहाती किसान को जबान खोलने का हौसला होता। ठाकुर ने इस दृश्य को गौर और दिलचस्पी से देखा। उसके पहलू में गुदगुदी-सी हुई। जिन्दादिली का जोश रगों में दौड़ा। वह अपनी जगह से उठा और मर्दाना लहजे में ललकारकर बोला-मैं यह प्रतिज्ञा करता हूँ और मरते दम तक उस पर कायम रहूँगा।

तना सुनना था कि दो हजार आँखें अचम्भे से उसकी तरफ ताकने लगीं। सुभानअल्लाह, क्या हुलिया थीगाढे की ढीली मिर्जई, घुटनों तक चढ़ी हुई धोती, सर पर एक भारी-सा उलझा हुआ साफा, कन्धे पर चुनौटी और तम्बाकू का वजनी बटुआ, मगर चेहरे से गम्भीरता और दृढ़ता स्पष्ट थी। गर्व आँखों के तंग घेरे से बाहर निकला पड़ता था। उसके दिल में अब इस शानदार मजमे की इज्जत बाकी न रही थी। वह पुराने वक्तों का आदमी था जो अगर पत्थर को पूजता था तो उसी पत्थर से डरता भी  था, जिसके लिए एकादशी का व्रत केवल स्वास्थ्य-रक्षा की एक युक्ति और गंगा केवल स्वास्थ्यप्रद पानी की एक धारा न थी। उसके विश्वासों में जागृति न हो लेकिन दुविधा नहीं थी। यानी कि उसकी कथनी और करनी में अन्तर न था और न उसकी बुनियाद कुछ अनुकरण और देखादेखी पर थी मगर अधिकांशत: भय पर, जो ज्ञान के आलोक के बाद वृतियों के संस्कार की सबसे बड़ी शक्ति है। गेरुए बाने का आदर और भक्ति करना इसके धर्म और विश्वास का एक अंग था। संन्यास में उसकी आत्मा को अपना अनुचर बनाने की एक सजीव शक्ति छिपी हुई थी और उस ताकत ने अपना असर दिखाया। लेकिन मजमे की इस हैरत ने बहुत जल्द मजाक की सूरत अख्तियार की। मतलबभरी निगाहें आपस में कहने लगींआखिर गंवार ही तो ठहरा!  देहाती है, ऐसे भाषण कभी काहे को सुने होंगे, बस उबल पड़ा। उथले गड्ढे में इतना पानी भी न समा सका! कौन नहीं जानता कि ऐसे भाषणों का उद्देश्य मनोरंजन होता है! दस आदमी आये, इकट्ठे बैठ, कुछ सुना, कुछ गप-शप मारी और अपने-अपने घर लौटे, न यह कि कौल-करार करने बैठे, अमल करने के लिए कसमें खाये!
     मगर निराश संन्यासी सो रहा थाअफसोस, जिस मुल्क की रोशनी में इतना अंधेरा है, वहॉँ कभी रोशनी का उदय होना मुश्किल नजर आता है। इस रोशनी पर, इस अंधेरी, मुर्दा और बेजान रोशनी पर मैं जहालत को, अज्ञान को ज्यादा ऊँची जगह देता हूँ। अज्ञान में सफाई है और हिम्मत है, उसके दिल और जबान में पर्दा नहीं होता, न कथनी और करनी में विरोध। क्या यह अफसोस की बात नहीं है कि ज्ञान और अज्ञान के आगे सिर झुकाये? इस सारे मजमें में सिर्फ एक आदमी है, जिसके पहलू में मर्दों का दिल है और गो उसे बहुत सजग होने का दावा नहीं लेकिन मैं उसके अज्ञान पर ऐसी हजारों जागृतियों को कुर्बान कर सकता हूँ। तब वह प्लेटफार्म से नीचे उतरे और दर्शनसिंह को गले से लगाकर कहाईश्वर तुम्हें प्रतिज्ञा पर कायम रखे।
--जमाना, अगस्त-सितम्बर १९१३

Munshi Premchan ki Kahani - Aakhiri Manjil


प्रेमचंद

 आखिरी मंजिल



ह ? आज तीन साल गुजर गए, यही मकान है, यही बाग है, यही गंगा का किनारा, यही संगमरमर का हौज। यही मैं हूँ और यही दरोदीवार। मगर इन चीजों से दिल पर कोई असर नहीं होता। वह नशा जो गंगा की सुहानी और हवा के दिलकश झौंकों से दिल पर छा जाता था। उस नशे के लिए अब जी तरस-जरस के रह जाता है। अब वह दिल नही रहा। वह युवती जो जिंदगी का सहारा थी अब इस दुनिया में नहीं है।
     मोहिनी ने बड़ा आकर्षक रूप पाया था। उसके सौंदर्य में एक आश्चर्यजनक बात थी। उसे प्यार करना मुश्किल था, वह पूजने के योग्य थी। उसके चेहरे पर हमेशा एक बड़ी लुभावनी आत्मिकता की दीप्ति रहती थी। उसकी आंखे जिनमें लाज और गंभीरता और पवित्रता का नशा था, प्रेम का स्रोत थी। उसकी एक-एक चितवन, एक-एक क्रिया; एक-एक बात उसके ह्रदय की पवित्रता और सच्चाई का असर दिल पर पैदा करती थी। जब वह अपनी शर्मीली आंखों से मेरी ओर ताकती तो उसका आकर्षण और असकी गर्मी मेरे दिल में एक ज्वारभाटा सा पैदा कर देती थी। उसकी आंखों से आत्मिक भावों की किरनें निकलती थीं मगर उसके होठों प्रेम की बानी से अपरिचित थे। उसने कभी इशारे से भी उस अथाह प्रेम को व्यक्त नहीं किया जिसकी लहरों में वह खुद तिनके की तरह बही जाती थी। उसके प्रेम की कोई सीमा न थी। वह प्रेम जिसका लक्ष्य मिलन है, प्रेम नहीं वासना है। मोहिनी का प्रेम वह प्रेम था जो मिलने में भी वियोग के मजे लेता है। मुझे खूब याद है एक बार जब उसी हौज के किनारे चॉँदनी रात में मेरी प्रेम भरी बातों से विभोर होकर उसने कहा था-आह ! वह आवाज अभी मेरे ह्रदय पर अंकित है, मिलन प्रेम का आदि है अंत नहीं। प्रेम की समस्या पर इससे ज्यादा शनदार, इससे ज्यादा ऊंचा ख्याल कभी मेरी नजर में नहीं गुजरा। वह प्रेम जो चितावनो से पैदा होता है और वियोग में भी हरा-भरा रहता है, वह वासना के एक झोंके को भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। संभव है कि यह मेरी आत्मस्तुति हो मगर वह प्रेम, जो मेरी कमजोरियों के बावजूद मोहिनी को मुझसे था उसका एक कतरा भी मुझे बेसुध करने के लिए काफी था। मेरा हृदय इतना विशाल ही न था, मुझे आश्चर्य होता था कि मुझमें वह कौन-सा गुण था जिसने मोहिनी को मेरे प्रति प्रेम से विह्वल कर दिया था। सौन्दर्य, आचरण की पवित्रता, मर्दानगी का जौहर यही वह गुण हैं जिन पर मुहब्बत निछावर होती है। मगर मैं इनमें से एक पर भी गर्व नहीं कर सकता था। शायद मेरी कमजोरियॉँ ही उस प्रेम की तड़प का कारण थीं।
     मोहिनी में वह अदायें न थीं जिन पर रंगीली तबीयतें फिदा हो जाया करती हैं। तिरछी चितवन, रूप-गर्व की मस्ती भरी हुई आंखें, दिल को मोह लेने वाली मुस्कराहट, चंचल वाणी, उनमें से कोई चीज यहॉँ न थी! मगर जिस तरह चॉँद की मद्धिम सुहानी रोशनी में कभी-कभी फुहारें पड़ने लगती हैं, उसी तरह निश्छल प्रेम में उसके चेहरे पर एक मुस्कराहट कौंध जाती और आंखें नम हो जातीं। यह अदा न थी, सच्चे भावों की तस्वीर थी जो मेरे हृदय में पवित्र प्रेम की खलबली पैदा कर देती थी।
    
                       

शा
म का वक्त था, दिन और रात गले मिल रहे थे। आसमान पर मतवाली घटायें छाई हुई थीं और मैं मोहिनी के साथ उसी हौज के किनारे बैठा हुआ था। ठण्डी-ठण्डी बयार और मस्त घटायें हृदय के किसी कोने में सोते हुए प्रेम के भाव को जगा दिया करती हैं। वह मतवालापन जो उस वक्त हमारे दिलों पर छाया हुआ था उस पर मैं हजारों होशमंदियों को कुर्बान कर सकता हूँ। ऐसा मालूम होता था कि उस मस्ती के आलम में हमारे दिल बेताब होकर आंखों से टपक पड़ेंगे। आज मोहिनी की जबान भी संयम की बेड़ियों से मुक्त हो गई थी और उसकी प्रेम में डूबी हुई बातों से मेरी आत्मा को जीवन मिल रहा था।
     एकाएक मोहिनी ने चौंककर गंगा की तरफ देखा। हमारे दिलों की तरह उस वक्त गंगा भी उमड़ी हुई थी।
     पानी की उस उद्विग्न उठती-गिरती सतह पर एक दिया बहता हुआ चला जाता था और और उसका चमकता हुआ अक्स थिरकता और नाचता एक पुच्छल तारे की तरह पानी को आलोकित कर रहा था। आह! उस नन्ही-सी जान की क्या बिसात थी! कागज के चंद पुर्जे, बांस की चंद तीलियां, मिट्टी का एक दिया कि जैसे किसी की अतृप्त लालसाओं की समाधि थी जिस पर किसी दुख बँटानेवाले ने तरस खाकर एक दिया जला दिया था मगर वह नन्हीं-सी जान जिसके अस्तित्व का कोई ठिकाना न था, उस अथाह सागर में उछलती हुई लहरों से टकराती, भँवरों से हिलकोरें खाती, शोर करती हुई लहरों को रौंदती चली जाती थी। शायद जल देवियों ने उसकी निर्बलता पर तरस खाकर उसे अपने आंचलों में छुपा लिया था।
     जब तक वह दिया झिलमिलाता और टिमटिमाता, हमदर्द लहरों से झकोरे लेता दिखाई दिया। मोहिनी टकटकी लगाये खोयी-सी उसकी तरफ ताकती रही। जब वह आंख से ओझल हो गया तो वह बेचैनी से उठ खड़ी हुई और बोली- मैं किनारे पर जाकर उस दिये को देखूँगी।
     जिस तरह हलवाई की मनभावन पुकार सुनकर बच्चा घर से बाहर निकल पड़ता है और चाव-भरी आंखों से देखता और अधीर आवाजों से पुकारता उस नेमत के थाल की तरफ दौड़ता है, उसी जोश और चाव के साथ मोहिनी नदी के किनारे चली।
     बाग से नदी तक सीढ़ियॉँ बनी हुई थीं। हम दोनों तेजी के साथ नीचे उतरे और किनारे पहुँचते ही मोहिनी ने खुशी के मारे उछलकर जोर से कहा-अभी है! अभी है! देखो वह निकल गया!
     वह बच्चों का-सा उत्साह और उद्विग्न अधीरता जो मोहिनी के चेहरे पर उस समय थी, मुझे कभी न भूलेगी। मेरे दिल में सवाल पैदा हुआ, उस दिये से ऐसा हार्दिक संबंध, ऐसी विह्वलता क्यों? मुझ जैसा कवित्वशून्य व्यक्ति उस पहेली को जरा भी न बूझ सका।
     मेरे हृदय में आशंकाएं पैदा हुई। अंधेरी रात है, घटायें उमड़ी हुई, नदी बाढ़ पर, हवा तेज, यहॉँ इस वक्त ठहरना ठीक नहीं। मगर मोहिनी! वह चाव-भरे भोलेपन की तस्वीर, उसी दिये की तरफ आँखें लगाये चुपचाप खड़ी थी और वह उदास दिया ज्यों हिलता मचलता चला जाता था, न जाने कहॉँ किस देश!
     मगर थोड़ी देर के बाद वह दिया आँखों से ओझल हो गया। मोहिनी ने निराश स्वर में पूछा-गया! बुझ गया होगा?
     और इसके पहले कि मैं जवाब दूँ वह उस डोंगी के पास चली गई, जिस पर बैठकर हम कभी-कभी नदी की सैरें किया करते थे, और प्यार से मेरे गले लिपटकर बोली-मैं उस दिये को देखने जाऊँगी कि वह कहॉँ जा रहा है, किस देश को।
     यह कहते-कहते मोहिनी ने नाव की रस्सी खोल ली। जिस तरह पेड़ों की डालियॉँ तूफान के झोंकों से झंकोले खाती हैं उसी तरह यह डोंगी डॉँवाडोल हो रही थी। नदी का वह डरावना विस्तार, लहरों की वह भयानक छलॉँगें, पानी की वह गरजती हुई आवाज, इस खौफनाक अंधेरे में इस डोंगी का बेड़ा क्योंकर पार होगा! मेरा दिल बैठ गया। क्या उस अभागे की तलाश में यह किश्ती भी डूबेगी! मगर मोहिनी का दिल उस वक्त उसके बस में न था। उसी दिये की तरह उसका हृदय भी भावनाओं की विराट, लहरों भरी, गरजती हुई नदी में बहा जा रहा था। मतवाली घटायें झुकती चली आती थीं कि जैसे नदी के गले मिलेंगी और वह काली नदी यों उठती थी कि जैसे बदलों को छू लेंगी। डर के मारे आँखें मुंदी जाती थीं। हम तेजी के साथ उछलते, कगारों के गिरने की आवाजें सुनते, काले-काले पेड़ों का झूमना देखते चले जाते थे। आबादी पीछे छूट गई, देवताओं को बस्ती से भी आगे निकल गये। एकाएक मोहिनी चौंककर उठ खड़ी हुई और बोली- अभी है! अभी है! देखों वह जा रहा है।
     मैंने आंख उठाकर देखा, वह दिया ज्यों का त्यों हिलता-मचलता चला जाता था।
स दिये को देखते हम बहुत दूर निकल गए। मोहिनी ने यह राग अलापना शुरू किया:
मैं साजन से मिलन चली

      कैसा तड़पा देने वाला गीत था और कैसी दर्दभरी रसीली आवाज। प्रेम और आंसुओं में डूबी हुई। मोहक गीत में कल्पनाओं को जगाने की बड़ी शक्ति होती है। वह मनुष्य को भौतिक संसार से उठाकर कल्पनालोक में पहुँचा देता है। मेरे मन की आंखों में उस वक्त नदी की पुरशोर लहरें, नदी किनारे की झूमती हुई डालियॉँ, सनसनाती हुई हवा सबने जैसे रूप धर लिया था और सब की सब तेजी से कदम उठाये चली जाती थीं, अपने साजन से मिलने के लिए। उत्कंठा और प्रेम से झूमती हुई ऐ युवती की धुंधली सपने-जैसी तस्वीर हवा में, लहरों में और पेड़ों के झुरमुट में चली जाती दिखाई देती और कहती थी- साजन से मिलने के लिए! इस गीत ने सारे दृश्य पर उत्कंठा का जादू फूंक दिया।
मैं साजन से मिलन चली
साजन बसत कौन सी नगरी मैं बौरी ना जानूँ
ना मोहे आस मिलन की उससे ऐसी प्रीत भली
मैं साजन से मिलन चली
     मोहिनी खामोश हुई तो चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था और उस सन्नाटे में एक बहुत मद्धिम, रसीला स्वप्निल-स्वर क्षितिज के उस पार से या नदी के नीचे से या हवा के झोंकों के साथ आता हुआ मन के कानों को सुनाई देता था।
                        मैं साजन से मिलन चली
     मैं इस गीत से इतना प्रभावित हुआ कि जरा देर के लिए मुझे खयाल न रहा कि कहॉँ हूँ और कहॉँ जा रहा हूँ। दिल और दिमाग में वही राग गूँज रहा था। अचानक मोहिनी ने कहा-उस दिये को देखो। मैंने दिये की तरफ देखा। उसकी रोशनी मंद हो गई थी और आयु की पूंजी खत्म हो चली थी। आखिर वह एक बार जरा भभका और बुझ गया। जिस तरह पानी की बूँद नदी में गिरकर गायब हो जाती है, उसी तरह अंधेरे के फैलाव में उस दिये की हस्ती गायब हो गई ! मोहिनी ने धीमे से कहा, अब नहीं दिखाई देता! बुझ गया! यह कहकर उसने एक ठण्डी सांस ली। दर्द उमड़ आया। आँसुओं से गला फंस गया, जबान से सिर्फ इतना निकला, क्या यही उसकी आखिरी मंजिल थी? और आँखों से आँसू गिरने लगे।
     मेरी आँखों के सामने से पर्दा-सा हट गया। मोहिनी की बेचैनी और उत्कंठा, अधीरता और उदासी का रहस्य समझ में आ गया और बरबस मेरी आंखों से भी आँसू की चंद बूंदें टपक पड़ीं। क्या उस शोर-भरे, खतरनाक, तूफानी सफर की यही आखिरी मंजिल थी?
     दूसरे दिन मोहिनी उठी तो उसका चेहरा पीला था। उसे रात भर नींद नहीं आई थी। वह कवि स्वभाव की स्त्री थी। रात की इस घटना ने उसके दर्द-भरे भावुक हृदय पर बहुत असर पैदा किया था। हँसी उसके होंठों पर यूँ ही बहुत कम आती थी, हॉँ चेहरा खिला रहता थां आज से वह हँसमुखपन भी बिदा हो गया, हरदम चेहरे पर एक उदासी-सी छायी रहती और बातें ऐसी जिनसे हृदय छलनी होता था और रोना आता था। मैं उसके दिल को इन ख्यालों से दूर रखने के लिए कई बार हँसाने वाले किस्से लाया मगर उसने उन्हें खोलकर भी न देखा। हॉँ, जब मैं घर पर न होता तो वह कवि की रचनाएं देखा करती मगर इसलिए नहीं कि उनके पढ़ने से कोई आनन्द मिलता था बल्कि इसलिए कि उसे रोने के लिए खयाल मिल जाता था और वह कविताएँ जो उस जमाने में उसने लिखीं दिल को पिघला देने वाले दर्द-भरे गीत हैं। कौन ऐसा व्यक्ति है जो उन्हें पढ़कर अपने आँसू रोक लेगा। वह कभी-कभी अपनी कविताएँ मुझे सुनाती और जब मैं दर्द में डूबकर उनकी प्रशंसा करता तो मुझे उसकी ऑंखों में आत्मा के उल्लास का नशा दिखाई पड़ता। हँसी-दिल्लगी और रंगीनी मुमकिन है कुछ लोगों के दिलों पर असर पैदा कर सके मगर वह कौन-सा दिल है जो दर्द के भावों से पिघल न जाएगा।
     एक रोज हम दोनों इसी बाग की सैर कर रहे थे। शाम का वक्त था और चैत का महीना। मोहिनी की तबियत आज खुश थी। बहुत दिनों के बाद आज उसके होंठों पर मुस्कराहट की झलक दिखाई दी थी। जब शाम हो गई और पूरनमासी का चॉँद गंगा की गोद से निकलकर ऊपर उठा तो हम इसी हौज के किनारे बैठ गए। यह मौलसिरियों की कतार ओर यह हौज मोहिनी की यादगार हैं। चॉँदनी में बिसात आयी और चौपड़ होने लगी। आज तबियत की ताजगी ने उसके रूप को चमका दिया था और उसकी मोहक चपलतायें मुझे मतवाला किये देती थीं। मैं कई बाजियॉँ खेला और हर बार हारा। हारने में जो मजा था वह जीतने में कहॉँ। हल्की-सी मस्ती में जो मजा है वह छकने और मतवाला होने में नहीं।
     चॉँदनी खूब छिटकी हुई थी। एकाएक मोहिनी ने गंगा की तरफ देखा और मुझसे बोली, वह उस पार कैसी रोशनी नजर आ रही है? मैंने भी निगाह दौड़ाई, चिता की आग जल रही थी लेकिन मैंने टालकर कहा- सॉँझी खाना पका रहे हैं।
     मोहिनी को विश्वास नहीं हुआ। उसके चेहरे पर एक उदास मुस्कराहट दिखाई दी और आँखें नम हो गईं। ऐसे दुख देने वाले दृश्य उसके भावुक और दर्दमंद दिल पर वही असर करते थे जो लू की लपट फूलों के साथ करती है।
     थोड़ी देर तक वह मौन, निश्चला बैठी रही फिर शोकभरे स्वर में बोली-अपनी आखिरी मंजिल पर पहुँच गया!’
-जमाना, अगस्त-सितम्बर १९११      


Munshi Premchand ki Kahani - Prem Ka Swapn


प्रेमचंद
प्रेम का स्वप्न

     मनुष्य का हृदय अभिलाषाओं का क्रीड़ास्थल और कामनाओं का आवास है। कोई समय वह थां जब कि माधवी माता के अंक में खेलती थी। उस समय हृदय अभिलाषा और चेष्टाहीन था। किन्तु जब मिट्टी के घरौंदे बनाने लगी उस समय मन में यह इच्छा उत्पन्न हुई कि मैं भी अपनी गुड़िया का विवाह करुँगी। सब लड़कियां अपनी गुड़ियां ब्याह रही हैं, क्या मेरी गुड़ियाँ कुँवारी रहेंगी? मैं अपनी गुड़ियाँ के लिए गहने बनवाऊँगी, उसे वस्त्र पहनाऊँगी, उसका विवाह रचाऊँगी। इस इच्छा ने उसे कई मास तक रुलाया। पर गुड़ियों के भाग्य में विवाह न बदा था। एक दिन मेघ घिर आये और मूसलाधार पानी बरसा। घरौंदा वृष्टि में बह गया और गुड़ियों के विवाह की अभिलाषा अपूर्ण हो रह गयी।
     कुछ काल और बीता। वह माता के संग विरजन के यहॉँ आने-जाने लगी। उसकी मीठी-मीठी बातें सुनती और प्रसन्न होती, उसके थाल में खाती और उसकी गोद में सोती। उस समय भी उसके हृदय में यह इच्छा थी कि मेरा भवन परम सुन्दर होता, उसमें चांदी के किवाड़ लगे होते, भूमि ऐसी स्वच्छ होती कि मक्खी बैठे और फिसल जाए ! मैं विरजन को अपने घर ले जाती, वहां अच्छे-अच्छे पकवान बनाती और खिलाती, उत्तम पलंग पर सुलाती और भली-भॉँति उसकी सेवा करती। यह इच्छा वर्षों तक हृदय में चुटकियाँ लेती रही। किन्तु उसी घरौंदे की भाँति यह घर भी ढह गया और आशाएँ निराशा में परिवर्तित हो गयी।
     कुछ काल और बीता, जीवन-काल का उदय हुआ। विरजन ने उसके चित्त पर प्रतापचन्द्र का चित्त खींचना आरम्भ किया। उन दिनों इस चर्चा के अतिरिक्त उसे कोई बात अच्छी न लगती थी। निदान उसके हृदय में प्रतापचन्द्र की चेरी बनने की इच्छा उत्पन्न हुई। पड़े-पड़े हृदय से बातें किया करती। रात्र में जागरण करके मन का मोदक खाती। इन विचारों से चित्त पर एक उन्माद-सा छा जाता, किन्तु प्रतापचन्द्र इसी बीच में गुप्त हो गये और उसी मिट्टी के घरौंदे की भाँति ये हवाई किले ढह गये। आशा के स्थान पर हृदय में शोक रह गया।
अब निराशा ने उसक हृदय में आशा ही शेष न रखा। वह देवताओं की उपासना करने लगी, व्रत रखने लगी कि प्रतापचन्द्र पर समय की कुदृष्टि न पड़ने पाये। इस प्रकार अपने जीवन के कई वर्ष उसने तपस्विनी बनकर व्यतीत किये। कल्पित प्रेम के उल्लास मे चूर होती। किन्तु आज तपस्विनी का व्रत टूट गया। मन में नूतन अभिलाषाओं ने सिर उठाया। दस वर्ष की तपस्या एक क्षण में भंग हो गयी। क्या यह इच्छा भी उसी मिट्टी के घरौंदे की भाँति पददलित हो जाएगी?  
     आज जब से माधवी ने बालाजी की आरती उतारी है,उसके आँसू नहीं रुके। सारा दिन बीत गया। एक-एक करके तार निकलने लगे। सूर्य थककर छिप गय और पक्षीगण घोसलों में विश्राम करने लगे, किन्तु माधवी के नेत्र  नहीं थके। वह सोचती है कि हाय! क्या मैं इसी प्रकार रोने के लिए बनायी गई हूँ?  मैं कभी हँसी भी थी जिसके कारण इतना रोती हूँ?  हाय! रोते-रोते आधी आयु बीत गयी, क्या शेष भी इसी प्रकार बीतेगी? क्या मेरे जीवन में एक दिन भी ऐसा न आयेगा, जिसे स्मरण करके सन्तोष हो कि मैंने भी कभी सुदिन देखे थे? आज के पहले माधवी कभी ऐसे नैराश्य-पीड़ित और छिन्नहृदया नहीं हुई थी। वह अपने कल्पित पेम मे निमग्न थी। आज उसके हृदय में नवीन अभिलाषाएँ उत्पन्न हुई है। अश्रु उन्हीं के प्रेरित है। जो हृदय सोलह वर्ष तक आशाओं का आवास रहा हो, वही इस समय माधवी की भावनाओं का अनुमान कर सकता है।
     सुवामा के हृदय मे नवीन इच्छाओं ने सिर उठाया है। जब तक बालजी को न देखा था, तब तक उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा यह थी कि वह उन्हें आँखें भर कर देखती और हृदय-शीतल कर लेती। आज जब आँखें भर देख लिया तो कुछ और देखने की अच्छा उत्पन्न हुई। शोक ! वह इच्छा उत्पन्न हुई माधवी के घरौंदे की भाँति मिट्टी में मिल जाने क लिए।
     आज सुवामा, विरजन और बालाजी में सांयकाल तक बातें होती रही। बालाजी ने अपने अनुभवों का वर्णन किया। सुवामा ने अपनी राम कहानी सुनायी और विरजन ने कहा थोड़ा, किन्तु सुना बहुत। मुंशी संजीवनलाल के सन्यास का समाचार पाकर दोनों रोयीं। जब दीपक जलने का समयआ पहुँचा, तो बालाजी गंगा की ओर संध्या करने चले और सुवामा भोजन बनाने बैठी। आज बहुत दिनों के पश्चात सुवामा मन लगाकर भोजन बना रही थी। दोनों बात करने लगीं।
     सुवामा-बेटी! मेरी यह हार्दिक अभिलाषा थी कि मेरा लड़का संसार में प्रतिष्ठित हो और ईश्वर ने मेरी लालसा पूरी कर दी। प्रताप ने पिता और कुल का नाम उज्ज्वल कर दिया। आज जब प्रात:काल मेरे स्वामीजी की जय सुनायी जा रही थी तो मेरा हृदय उमड़-उमड़ आया था। मैं केवल इतना चाहती हूँ कि वे यह वैराग्य त्याग दें। देश का उपकार करने से मैं उन्हें नहीं राकती। मैंने तो देवीजी से यही वरदान माँगा था, परन्तु उन्हें संन्यासी के वेश में देखकर मेरा हृदय विदीर्ण हुआ जाता है।
     विरजन सुवामा का अभिप्राय समझ गयी। बोली-चाची! यह बात तो मेरे चित्त में पहिले ही से जमी हुई है। अवसर पाते ही अवश्य छेडूँगी।
     सुवामा-अवसर तो कदाचित ही मिले। इसका कौन ठिकान?  अभी जी में आये, कहीं चल दें। सुनती हूँ सोटा हाथ में लिये अकेले वनों में घूमते है। मुझसे अब बेचारी माधवी की दशा नहीं देखी जाती। उसे देखती हूँ तो जैसे कोई मेरे हृदय को मसोसने लगता है। मैंने बहुतेरी स्त्रीयाँ देखीं और अनेक का वृत्तान्त पुस्तकों में पढ़ा ; किन्तु ऐसा प्रेम कहीं नहीं देखा। बेचारी ने आधी आयु रो-रोकर काट दी और कभी मुख न मैला किया। मैंने कभी उसे रोते नहीं देखा ;  परन्तु रोने वाले नेत्र और हँसने वाले मुख छिपे नहीं रहते। मुझे ऐसी ही पुत्रवधू की लालसा थी, सो भी ईश्वर ने पूर्ण कर दी। तुमसे सत्य कहती हूँ, मैं उसे पुत्रवधू समझती हूँ। आज से नहीं, वर्षों से।
     वृजरानी- आज उसे सारे दिन रोते ही बीता। बहुत उदास दिखायी देती है।
     सुवामा- तो आज ही इसकी चर्चा छेड़ो। ऐसा न हो कि कल किसी ओर प्रस्थान कर दे, तो फिर एक युग प्रतीक्षा करनी पड़े।
     वृजरानी- (सोचकर) चर्चा करने को तो मैं करुँ, किन्तु माधवी स्वयं जिस उत्तमता के साथ यह कार्य कर सकती है, कोई दूसरा नहीं कर सकता।
     सुवामा- वह बेचारी मुख से क्या कहेगी?
     वृजरानी- उसके नेत्र सारी कथा कह देंगे?
     सुवामा- लल्लू अपने मन में क्या कहंगे?
     वृजरानी- कहेंगे क्या ?  यह तुम्हारा भ्रम है जो तुम उसे कुँवारी समझ रही हो। वह प्रतापचन्द्र की पत्नी बन चुकी। ईश्वर के यहाँ उसका विवाह उनसे हो चुका यदि ऐसा न होता तो क्या जगत् में पुरुष न थे?  माधवी जैसी स्त्री को कौन नेत्रों में न स्थान देगा?  उसने अपना आधा यौवन व्यर्थ रो-रोकर बिताया है। उसने आज तक ध्यान में भी किसी अन्य पुरुष को स्थान नहीं दिया। बारह वर्ष से तपस्विनी का जीवन व्यतीत कर रही है। वह पलंग पर नहीं सोयी। कोई रंगीन वस्त्र नहीं पहना। केश तक नहीं गुँथाये। क्या इन व्यवहारों से नहीं सिद्व होता कि माधवी का विवाह हो चुका?  हृदय का मिलाप सच्चा विवाह है। सिन्दूर का टीका, ग्रन्थि-बन्धन और भाँवर- ये सब संसार के ढकोसले है।
     सुवामा- अच्छा, जैसा उचित समझो करो। मैं केवल जग-हँसाई से डरती हूँ।
     रात को नौ बजे थे। आकाश पर तारे छिटके हुए थे। माधवी वाटिका में अकेली किन्तु अति दूर हैं। क्या कोई वहाँ तक पहुँच सकता है?  क्या मेरी आशाएँ भी उन्ही नक्षत्रों की भाँति है?  इतने में विरजन ने उसका हाथ पकड़कर हिलाया। माधवी चौंक पड़ी।
     विरजन-अँधेरे में बैठी क्या कर रही है?
     माधवी- कुछ नहीं, तो तारों को देख रही हूँ। वे कैसे सुहावने लगते हैं, किन्तु मिल नहीं सकते।
     विरजन के कलेजे मे बर्छी-सी लग गयी। धीरज धरकर बोली- यह तारे गिनने का समय नहीं है। जिस अतिथि के लिए आज भोर से ही फूली नहीं समाती थी, क्या इसी प्रकार उसकी अतिथि-सेवा करेगी?
     माधवी- मैं ऐसे अतिथि की सेवा के योग्य कब हूँ?
     विरजन- अच्छा, यहाँ से उठो तो मैं अतिथि-सेवा की रीति बताऊँ।
     दोनों भीतर आयीं। सुवामा भोजन बना चुकी थी। बालाजी को माता के हाथ की रसोई बहुत दिनों में प्राप्त हुई। उन्होंने बड़े प्रेम से भोजन किया। सुवामा खिलाती जाती थी और रोती जाती थी। बालाजी खा पीकर लेटे, तो विरजन ने माधवी से कहा- अब यहाँ कोने में मुख बाँधकर क्यों बैठी हो?
     माधवी- कुछ दो तो खाके सो रहूँ, अब यही जी चाहता है।
     विरजन- माधवी! ऐसी निराश न हो। क्या इतने दिनों का व्रत एक दिन में भंग कर देगी?
     माधवी उठी, परन्तु उसका मन बैठा जाता था। जैसे मेघों की काली-काली घटाएँ उठती है और ऐसा प्रतीत होता है कि अब जल-थल एक हो जाएगा, परन्तु अचानक पछवा वायु चलने के कारण सारी घटा काई की भाँति फट जाती है, उसी प्रकार इस समय माधवी की गति हो रही है।
     वह शुभ दिन देखने की लालसा उसके मन में बहुत दिनों से थी। कभी वह दिन भी आयेगा जब कि मैं उसके दर्शन पाऊँगी? और उनकी अमृत-वाणी से श्रवण तृप्त करुँगी। इस दिन के लिए उसने मान्याएँ कैसी मानी थी?  इस दिन के ध्यान से ही उसका हृदय कैसा खिला उठता था!
     आज भोर ही से माधवी बहुत प्रसन्न थी। उसने बड़े उत्साह से फूलों का हार गूँथा था। सैकड़ों काँटे हाथ में चुभा लिये। उन्मत्त की भाँति गिर-गिर पड़ती थी। यह सब हर्ष और उमंग इसीलिए तो था कि आज वह शुभ दिन आ गया। आज वह दिन आ गया जिसकी ओर चिरकाल से आँखे लगी हुई थीं। वह समय भी अब स्मरण नहीं, जब यह अभिलाषा मन में नहीं, जब यह अभिलाषा मन में न रही हो। परन्तु इस समय माधवी के हृदय की वह गाते नहीं है। आनन्द की भी सीमा होती है। कदाचित् वह माधवी के आनन्द की सीमा थी, जब वह वाटिका में झूम-झूमकर फूलों से आँचल भर रही थी। जिसने कभी सुख का स्वाद ही न चखा हो, उसके लिए इतना ही आनन्द बहुत है। वह बेचारी इससे अधिक आनन्द का भार नहीं सँभाल सकती। जिन अधरों पर कभी हँसी आती ही नहीं, उनकी मुस्कान ही हँसी है। तुम ऐसों से अधिक हँसी की आशा क्यों करते हो? माधवी बालाजी की ओर परन्तु इस प्रकार इस प्रकार नहीं जैसे एक नवेली बहू आशाओं से भरी हुई श्रृंगार किये अपने पति के पास जाती है। वही घर था जिसे वह अपने देवता का मन्दिर समझती थी। जब वह मन्दिर शून्य था, तब वह आ-आकर आँसुओं के पुष्प चढ़ाती थी। आज जब देवता ने वास किया है, तो वह क्यों इस प्रकार मचल-मचल कर आ रही है?
     रात्रि भली-भाँति आर्द्र हो चुकी थी। सड़क पर घंटों के शब्द सुनायी दे रहे थे। माधवी दबे पाँव बालाजी के कमरे के द्वार तक गयी। उसका हृदय धड़क रहा था। भीतर जाने का साहस न हुआ, मानो किसी ने पैर पकड़ लिए। उल्टे पाँव फिर आयी और पृथ्वी पर बैठकर रोने लगी। उसके चित्त ने कहा- माधवी! यह बड़ी लज्जा की बात है। बालाजी की चेरी सही, माना कि तुझे उनसे प्रेम है ;  किन्तु तू उसकी स्त्री नहीं है। तुझे इस समय उनक गृह में रहना उचित नहीं है। तेरा प्रेम तुझे उनकी पत्नी नहीं बना सकता। प्रेम और वस्तु है और सोहाग और वस्तु है। प्रेम चित की प्रवृत्ति है और ब्याह एक पवित्र धर्म है। तब माधवी को एक विवाह का स्मरण हो आया। वर ने भरी सभा मे पत्नी की बाँह पकड़ी थी और कहा था कि इस स्त्री को मैं अपने गृह की स्वामिनी और अपने मन की देवी समझता रहूँगा। इस सभा के लोग, आकाश, अग्नि और देवता इसके साक्षी रहे। हा! ये कैसे शुभ शब्द है। मुझे कभी ऐसे शब्द सुनने का मौका प्राप्त न हुआ! मैं न अग्नि को अपना साक्षी बना सकती हूँ, न देवताओं को और न आकाश ही को;  परन्तु है अग्नि! है आकाश के तारो! और हे देवलोक-वासियों! तुम साक्षी रहना कि माधवी ने बालाजी की पवित्र मूर्ति को हृदय में स्थान दिया, किन्तु किसी निकृष्ट विचार को हृदय में न आने दिया। यदि मैंने घर के भीतर पैर रखा हो तो है अग्नि! तुम मुझे अभी जलाकर भस्म कर दो। हे आकाश! यदि तुमने अपने अनेक नेत्रों से मुझे गृह में जाते देखा, तो इसी क्षण मेरे ऊपर इन्द्र का वज्र गिरा दो।
     माधवी कुछ काल तक इसी विचार मे मग्न बैठी रही। अचानक उसके कान में भक-भक की ध्वनि आयीय। उसने चौंककर देखा तो बालाजी का कमरा अधिक प्रकाशित हो गया था और प्रकाश खिड़कियों से बाहर निकलकर आँगन में फैल रहा था। माधवी के पाँव तले से मिट्टी निकल गयी। ध्यान आया कि मेज पर लैम्प भभक उठा। वायु की भाँति वह बालाजी के कमरे में घुसी। देखा तो लैम्प फटक पृथ्वी पर गिर पड़ा है और भूतल के बिछावन में तेल फैल जाने के कारण आग लग गयी है। दूसरे किनारे पर बालाजी सुख से सो रहे थे। अभी तक उनकी निद्रा न खुली थी। उन्होंने कालीन समेटकर एक कोने में रख दिया था। विद्युत की भाँति लपककर माधवी ने वह कालीन उठा लिया और भभकती हुई ज्वाला के ऊपर गिरा दिया। धमाके का शब्द हुआ तो बालाजी ने चौंककर आँखें खोली। घर मे धुआँ भरा था और चतुर्दिक तेल की दुर्गन्ध फैली हुई थी। इसका कारण वह समझ गये। बोले- कुशल हुआ, नहीं तो कमरे में आग लग गयी थी।
     माधवी- जी हाँ! यह लैम्प गिर पड़ा था।
     बालाजी- तुम बड़े अवसर से आ पहुँची।
     माध्वी- मैं यहीं बाहर बैठी हुई थी।
     बालाजी तुमको बड़ा कष्ट हुआ। अब जाकर शयन करो। रात बहुत हा गयी है।
     माधवी चली जाऊँगी। शयन तो नित्य ही करना है। यअ अवसर न जाने फिर कब आये?
     माधवी की बातों से अपूर्व करुणा भरी थी। बालाजी ने उसकी ओर ध्यान-पूर्वक देखा। जब उन्होंने पहिले माधवी को देखा था,उसक समय वह एक खिलती हुई कली थी और आज वह एक मुरझाया हुआ पुष्प है। न मुख पर सौन्दर्य था, न नेत्रों में आनन्द की झलक, न माँग में सोहाग का संचार था, न माथे पर सिंदूर का टीका। शरीर में आभूषाणों का चिन्ह भी न था। बालाजी ने अनुमान से जाना कि विधाता से जान कि विधाता ने ठीक तरुणावस्था में इस दुखिया का सोहाग हरण किया है। परम उदास होकर बोले-क्यों माधवी! तुम्हारा तो विवाह हो गया है न?
     माधवी के कलेज मे कटारी चुभ गयी। सजल नेत्र होकर बोली- हाँ, हो गया है।
     बालाजी- और तुम्हार पति?
     माधवी- उन्हें मेरी कुछ सुध ही नहीं। उनका विवाह मुझसे नहीं हुआ।
     बालाजी विस्मित होकर बोले- तुम्हारा पति करता क्या है?
     माधवी- देश की सेवा।
     बालाजी की आँखों के सामने से एक पर्दा सा हट गया। वे माधवी का मनोरथ जान गये और बोले- माधवी इस विवाह को कितने दिन हुए?
     बालाजी के नेत्र सजल हो गये और मुख पर जातीयता के मद का उन्माद सा छा गया। भारत माता! आज इस पतितावस्था में भी तुम्हारे अंक में ऐसी-ऐसी देवियाँ खेल रही हैं, जो एक भावना पर अपने यौवन और जीवन की आशाऍं समर्पण कर सकती है। बोले- ऐसे पति को तुम त्याग क्यों नहीं देती?
     माधवी ने बालाजी की ओर अभिमान से देखा और कहा- स्वामी जी! आप अपने मुख से ऐसे कहें! मैं आर्य-बाला हूँ। मैंने गान्धारी और सावित्री के कुल में जन्म लिया है। जिसे एक बार मन में अपना पति मान ाचुकी उसे नहीं त्याग सकती। यदि मेरी आयु इसी प्रकार रोते-रोते कट जाय, तो भी अपने पति की ओर से मुझे कुछ भी खेद न होगा। जब तक मेरे शरीर मे प्राण रहेगा मैं ईश्वर से उनक हित चाहती रहूँगी। मेरे लिए यही क्या कमक है, जो ऐसे महात्मा के प्रेम ने मेरे हृदय में निवास किया है? मैं इसी का अपना सौभाग्य समझती हूँ। मैंने एक बार अपने स्वामी को दूर से देखा था। वह चित्र एक क्षण के लिए भी आँखों से नही उतरा। जब कभी मैं बीमार हुई हूँ, तो उसी चित्र ने मेरी शुश्रुषा की है। जब कभी मैंने वियोेग के आँसू बहाये हैं, तो उसी चित्र ने मुझे सान्त्वना दी है। उस चित्र वाले पति को मै। कैसे त्याग दूँ?  मैं उसकी हूँ और सदैव उसी का रहूँगी। मेरा हृदय और मेरे प्राण सब उनकी भेंट हो चुके हैं। यदि वे कहें तो आज मैं अग्नि के अंक मंे ऐसे हर्षपूर्वक जा बैठूँ जैसे फूलों की शैय्या पर। यदि मेरे प्राण उनके किसी काम आयें तो मैं उसे ऐसी प्रसन्नता से दे दूँ जैसे कोई उपसाक अपने इष्टदेव को फूल चढ़ाता हो।
     माधवी का मुखमण्डल प्रेम-ज्योति से अरुणा हो रहा था। बालाजी ने सब कुछ सुना और चुप हो गये। सोचने लगे- यह स्त्री है ; जिसने केवल मेरे ध्यान पर अपना जीवन समर्पण कर दिया है। इस विचार से बालाजी के नेत्र अश्रुपूर्ण हो गये। जिस प्रेम ने एक स्त्री का जीवन जलाकर भस्म कर दिया हो उसके लिए एक मनुष्य के घैर्य को जला डालना कोई बात नहीं! प्रेम के सामने धैर्य कोई वस्तु नहीं है। वह बोले- माधवी तुम जैसी देवियाँ भारत की गौरव है। मैं बड़ा भाग्यवान हूँ कि तुम्हारे प्रेम-जैसी अनमोल वस्तु इस प्रकार मेरे हाथ आ रही है। यदि तुमने मेरे लिए योगिनी बनना स्वीकार किया है तो मैं भी तुम्हारे लिए इस सन्यास और वैराग्य का त्याग कर सकता हूँ। जिसके लिए तुमने अपने को मिटा दिया है।, वह तुम्हारे लिए बड़ा-से-बड़ा बलिदान करने से भी नहीं हिचकिचायेगा।
     माधवी इसके लिए पहले ही से प्रस्तुत थी, तुरन्त बोली-  स्वामीजी! मैं परम अबला और बुद्विहीन सत्री हूँ। परन्तु मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि निज विलास का ध्यान आज तक एक पल के लिए भी मेरे मन मे नही आया। यदि आपने यह विचार किया कि मेर प्रेम का उद्देश्य केवल यह क आपके चरणों में सांसारिक बन्धनों की बेड़ियाँ डाल दूँ, तो (हाथ जोड़कर) आपने इसका तत्व नहीं समझा। मेरे प्रेम का उद्देश्य वही था, जो आज मुझे प्राप्त हो गया। आज का दिन मेरे जीवन का सबसे शुभ दिन है। आज में अपने प्राणनाथ के सम्मुख खड़ी हूँ और अपने कानों से उनकी अमृतमयी वाणी सुन रही हूँ। स्वामीजी! मुझे आशा न थी कि इस जीवन में मुझे यह दिन देखने का सौभाग्य होगा। यदि मेरे पास संसार का राज्य होता तो मैं इसी आनन्द से उसे आपके चरणों में समर्पण कर देती। मैं हाथ जोड़कर आपसे प्रार्थना करती हूँ कि मुझे अब इन चरणों से अलग न कीजियेगा। मै। सन्यस ले लूँगी और आपके संग रहूँगी। वैरागिनी बनूँगी, भभूति रमाऊँगी;  परन्त् आपका संग न छोडूँगी। प्राणनाथ! मैंने बहुत दु:ख सहे हैं, अब यह जलन नहीं सकी जाती।
     यह कहते-कहते माधवी का कंठ रुँध गया और आँखों से प्रेम की धारा बहने लगी। उससे वहाँ न बैठा गया। उठकर प्रणाम किया और विरजन के पास आकर  बैठ गयी। वृजरानी ने उसे गले लगा लिया और पूछा क्या बातचीत हुई?
माधवी- जो तुम चहाती थीं।
     वृजरानी- सच, क्या बोले?
     माधवी- यह न बताऊँगी।
     वृजरानी को मानो पड़ा हुआ धन मिल गया। बोली- ईश्वर ने बहुत दिनों में मेरा मनारेथ पूरा किया। मे अपने यहाँ से विवाह करुँगी।
     माधवी नैराश्य भाव से मुस्करायी। विरजन ने कम्पित स्वर से कहा-  हमको भूल तो न जायेगी?  उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। फिर वह स्वर सँभालकर बोली- हमसे तू बिछुड़ जायेगी।
     माधवी- मैं तुम्हें छोड़कर कहीं न जाऊँगी।
     विरजन- चल;  बातें ने बना।
     माधवी- देख लेना।
     विरजन- देखा है। जोड़ा कैसा पहनेगी?
     माधवी- उज्ज्वल, जैसे बगुले का पर।
     विरजन- सोहाग का जोड़ा केसरिया रंग का होता है।
     माधवी- मेरा श्वेत रहेगा।
     विरजन- तुझे चन्द्रहार बहुत भाता था। मैं अपना दे दूँगी।
     माधवी-हार के स्थान पर कंठी दे देना।
     विरजन- कैसी बातें कर रही हैं?
     माधवी- अपने श्रृंगार की!
     विरजन- तेरी बातें समझ में नहीं आती। तू इस समय इतनी उदास क्यों है? तूने इस रत्न के लिए कैसी-कैसी तपस्याएँ की, कैसा-कैसा योग साधा, कैसे-कैसे व्रत किये और तुझे जब वह रत्न मिल गया तो हर्षित नहीं देख पड़ती!
     माधवी- तुम विवाह की बातीचीत करती हो इससे मुझे दु:ख होता है।
     विरजन- यह तो प्रसन्न होने की बात है।
     माधवी- बहिन! मेरे भाग्य में प्रसन्नता लिखी ही नहीं! जो पक्षी बादलों में घोंसला बनाना चाहता है वह सर्वदा डालियों पर रहता है। मैंने निर्णय कर लिया है कि जीवन की यह शेष समय इसी प्रकार प्रेम का सपना  देखने में काट दूँगी।